जहां गए हम वहां अकेले हो गए
पत्तें-पत्तें में कोमलता की छांव थी
देखो बे-मौसम ही पतझड़ हो गए
क्रांकीट की मजबूत दीवार है सबकी
घर की तुलसी एक कोने में हो गए
गौरैया की चीं-चीं से गूंजता था घर आंगन
घर सुना करके न जाने कहां चले गए
तरस गई बूढ़ी आंखें औलाद के खातिर
वक्त की दौड़ में सब परदेश के हो गए
ऐसा नहीं ख़ुदा कि मैं तुम्हें भूल गया
कुछ मजबूर थे, कुछ बेवजह दूर हो गए
2 टिप्पणियाँ
तबाही
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर रचना 👌👌
जवाब देंहटाएं