Letter without Address - Part Seven मां ने गहरी सांस ली। मन में जैसे कोई बोझ उतर आया हो — या शायद एक नई चिंता ने जगह ले ली हो। अगर सच में यह प्रेम का मामला निकला, तो बहुत सोच-समझकर कदम उठाने होंगे। बेटी अभी तो जीवन की शुरुआत में है — ज़रा सी भूल उसका पूरा रास्ता बदल सकती है।
उन्होंने खुद से वादा किया — “न जल्दबाज़ी करूंगी, न ग़ुस्सा। इस बार ममता और समझदारी, दोनों साथ चलेंगी।”
उन्होंने धीरे से आवाज़ दी, “शालिनी... ज़रा इधर आओ।”
शालिनी कमरे में आई तो मां ने एक चिट्ठी उसकी ओर बढ़ा दी।
“ये क्या है, शालिनी?”
Letter without Address - Part Seven
पत्र देखते ही शालिनी के चेहरे का रंग उड़ गया। वह तो उसी पेन से लिखी गई थी जो उसने जोहन को दिया था ।कुछ कहना चाहा, पर शब्द गले में अटक गए। वह चुप रही। मां उसकी आंखों में झांक रही थीं — जैसे हर भावना को पढ़ लेना चाहती हों।
थोड़ी देर बाद शालिनी ने खुद को संभाला, चेहरा सामान्य करने की कोशिश की और बोली,
“मुझे नहीं पता, मां... ये किसने लिखा है।”
मां ने बिना कुछ कहे, और कुछ पत्र उसके सामने रख दिए।
“इन्हें भी देखो,” उन्होंने शांत स्वर में कहा, “शायद इनसे कुछ याद आ जाए... पहचानो इन्हें।”
कमरे में सन्नाटा अब भी पसरा हुआ था।
खिड़की के पार से आती हल्की हवा परदे हिला रही थी, पर भीतर का वातावरण स्थिर था — भारी और अनकहा।
माँ ने धीरे से कुर्सी खिसकाई।
“शालिनी, ये सब कुछ अचानक नहीं हुआ है... कई दिनों से मैं देख रही हूँ, तुम कुछ छुपा रही हो।”
शालिनी ने सिर झुका लिया, उंगलियाँ अपनी चुन्नी के किनारे पर घूमने लगीं।
“मैं कुछ नहीं छुपा रही, माँ। बस ये बातें... इनका मुझसे कोई लेना-देना नहीं।”
माँ उसके पास आईं, उसकी ठंडी उंगलियों को अपने हाथों में लिया।
“बेटी, मैं तेरी आँखें पढ़ सकती हूँ। ये चुप्पी... ये सब कुछ कह जाती है।”
शालिनी की आँखों में नमी उतर आई।
“आप नहीं समझेंगी, माँ।
माँ चुप रहीं। कुछ पल तक घड़ी की टिक-टिक फिर सुनाई देने लगी।
फिर उन्होंने हल्की आवाज़ में कहा —
“अगर दिल में सच है, तो डरना मत, शालिनी। लेकिन अगर दर्द है... तो उसे छिपाने से वो और गहरा हो जाएगा।”
शालिनी ने माँ की ओर देखा — पहली बार, बिना किसी बनावट के।
उसकी आँखों में सवाल थे, अपराधबोध भी, और कहीं न कहीं एक टूटे हुए भरोसे की परछाई।
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रात गहरा चुकी थी।
माँ अपने कमरे में चली गईं, लेकिन शालिनी की आँखों से नींद कोसों दूर थी।
वो खिड़की के पास बैठी रही — वही पुरानी मेज़, वही पत्र , और वही नाम...
"जोहन"
हालाँकि नाम कहीं लिखा नहीं था, फिर भी वह जानती थी — यह उसी के लिए लिखा गया है। जिस नीले पेन से शब्दों ने आकार लिया था, उसने दिया था । उसकी स्याही में उसी की पहचान झलक रही थी; वही उसकी लिखावट थी।
उसने पत्र पर उंगलियाँ फेरीं।
जगह-जगह वही लिखावट, वही शब्द — कुछ मीठे, कुछ कड़वे, और कुछ ऐसे जो सीधे दिल में उतरते थे।
“मुझे भूले नहीं , तुम?” उसने बुदबुदाया।
लेकिन वह जानती थी — जवाब उसके दिल में ही छिपा है।
“मुझे भूले नहीं, तुम?” — उसने धीमे से बुदबुदाया।
पर भीतर कहीं वह जानती थी, जवाब तो उसके दिल की धड़कनों में ही छिपा है।
वह आज भी उतना ही प्रेम करता है... और मैं — जैसे भूल ही गई हूँ उसे।
वो मुझसे मिलने मेरे शहर तक चला आया, और मैं हूँ कि उसके बारे में सोचने की फुर्सत भी न निकाल पाई।
उसका होना ही मेरे लिए काफी था, पर मन में एक डर अब भी था — घरवालों का।
कहीं पकड़े गए तो? फिर क्या होगा... कौन समझेगा उस प्रेम की चुप पुकार को?
शालिनी का प्रेम अब भीतर से हिलोरें लेने लगा, मानो उसके दिल की लहरें किसी अनकहे संगीत पर थिरक रही हों। वह उसकी यादों में खो गई, ख्यालों में उससे बातें करने लगी — बिना शब्दों के, केवल अपनी धड़कनों की भाषा में।
स्मृतियों में उभरती तस्वीरें, जैसे किसी पुराने चलचित्र के मीठे दृश्य, उसकी आंखों के सामने जीवंत हो उठीं। हर रंग, हर मुस्कान, हर चुप्पी — सब कुछ उसके लिए बेहद प्यारा था।
वह सोच रही थी — जब उससे मुलाकात होगी, उसकी नाराजगी कैसे सुलझाएगी?
“वह मुझसे नाराज़ होगा...” यह ख्याल उसके मन में एक हल्की बेचैनी छोड़ गया, फिर भी उसके भीतर एक अजीब सी गर्माहट थी, जैसे डर और प्रेम साथ-साथ सांस ले रहे हों।
हर चिंतन के बीच, हर संकोच के पल में, उसके दिल में सिर्फ एक बात गूंजती रही — उसका होना ही पर्याप्त है, और यह कि वे फिर से साथ होंगे, कुछ भी कहे या कहे बिना।
इन्हीं स्मृतियों को सजाती हुई कब उसकी आंखों में नींद आ गई, उसे पता ही नहीं चली । लेकिन सहसा नींद चार बजे ही खुल गई । उससे मिलने की बैचैनी, उसे देर तक सोने नहीं दी । 
मिलने के ख्वाब तो उसने सजा लिए थे, लेकिन अब सवाल यह था—वह वास्तव में कहां मिलेगा? यही अनकहा डर और बेचैनी उसे अंदर तक घेर रही थी। आखिरकार, वह जोहान से कैसे मिलेगी?
विचारों की उलझन में उसका मन किसी तूफान की तरह उथल-पुथल कर रहा था। हर कदम पर एक नई चिंता उसे पीछे खींचती, हर सांस में सवालों की गूंज होती। तभी अचानक, जैसे कोई प्रकाश की किरण अंधेरे में फूट पड़े, उसे याद आया—मां ने जो पत्र दिया था, शायद उसी में इसका उत्तर छिपा है।
हाथों में हल्की कंपन के साथ उसने पत्र निकाला और धीरे-धीरे, एक-एक करके अक्षरों को पढ़ना शुरू किया, हर शब्द में उसकी धड़कनों का संगीत बज रहा था।
एक पत्र मिला जिसमें लिखा था - वहीं आना जहां शहर की सांझ सुनहरी होती है । 
पढ़ते ही उसका ध्यान उस ओर चला गया, जिस जगह का ज़िक्र पत्र में किया गया था। वह जगह कौन-सी है? तभी याद आया कि कॉलेज के दिनों में मैंने ही उसे बताया था कि हमारे शहर में एक जगह ऐसी है, जहाँ शाम ढलते ही हवा में एक अजीब-सी ठंडक घुल जाती है। पुराने पेड़ों की छाँव तले, एक टूटी-सी बेंच पर बैठकर लोग अपने बीते दिनों की बातें किया करते थे।
क्रमशः -
इन्हें भी पढ़ें बिना पते की चिट्ठी-भाग छः 
-राजकपूर राजपूत "राज "

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