टमाटर की चटनी और जीवन दर्शन Tomato Chutney and Life Philosophy Story

 टमाटर की चटनी और जीवन दर्शन Tomato Chutney and Life Philosophy Story 

गजानन जब भी घर से बाहर निकलते थे, तो अपने जूते हाथ में पकड़ लेते थे। वे जूते वहीं जाकर पहनते थे, जहाँ उन्हें जाना होता था। गाँव के पास पहुँचने के बाद ही वे अपने जूते पहनते थे। इस कारण उनके पैरों की कोमलता समाप्त हो गई थी। छोटे-मोटे काँटों का उन्हें अहसास भी नहीं होता था।


इस वजह से उनके जूते कई सालों तक टिक जाते थे। खाने-पीने में भी वे इसी तरह की मितव्ययिता बरतते थे। कभी-कभी बिना साग-सब्ज़ी के ही भोजन कर लेते थे। घर के ही दो टमाटर, थोड़ा धनिया और हरी मिर्च पीसकर चटनी बना लेते थे, और वही उनका दिन का भोजन होता था।

Tomato Chutney and Life Philosophy Story

गजानन को तंबाकू का नशा था, लेकिन वे उसे बहुत कम ही खरीदते थे। पड़ोसी के यहाँ जाकर थोड़ा-सा फाँक मार लेते थे और संतुष्ट हो जाते थे। वे कहते हैं कि यही वह पड़ोसी है, जिसके साथ उन्होंने अपनी जवानी का अधिकांश समय गुज़ारा है। कभी दोनों साथ-साथ बैठकर बराबरी से नशा किया करते थे। अब हालात बदल गए हैं — उनके साथी आज भी तंबाकू नहीं छोड़ पाए हैं, जबकि उन्होंने लगभग छोड़ ही दिया है। वे अपने साथी को भी छोड़ने की सलाह देते हैं ताकि वह भी पूरी तरह इस आदत से मुक्त हो जाए।


दीपावली का त्योहार जब आता, तब गजानन अपने बच्चों के लिए कोई पटाखे नहीं खरीदते थे। हां नहीं के बराबर खरीद लेते ताकि बच्चों को संतुष्ट किया जा सके । बच्चे जब ज़िद करते, तो वे कहते —


“गाँव के दाऊ के लड़के बहुत पटाखे फोड़ा करते हैं। तुम लोग उनके साथ ही रह लिया करो। जब वे पटाखे फोड़ने बैठें, तो तुम भी बैठ जाया करो। जब वे भागें, तो तुम भी भाग जाया करो। वे समझेंगे कि उसने पटाखे फोड़े हैं, और तुम समझना कि तुमने पटाखे फोड़े हैं। खुशी ढूँढ़ने से मिलती है।”


घर के बच्चे उनके इन तर्कों से परेशान हो जाते थे, मगर वे अपनी कंजूसी से कभी टस से मस नहीं होते थे। ऐसे ही करते-करते उन्होंने काफी धन एकत्र कर लिया था।


दिन इसी तरह कंजूसी में गुजर रहे थे। देखते ही देखते उनके बड़े लड़के की शादी की उम्र हो गई ।


उसका लड़का कहने लगा -"मेरी शादी में कंजूसी मत करना बापू । "


जिस पर वह कहते - "संतुष्टि मानसिक दशा है , गोकुल । कोई पैसे उड़ाकर सुख लेते हैं तो कोई उसे सहेज कर । किसी को छप्पन भोग से खुशी नहीं मिलती तो किसी को टमाटर की चटनी से मिल जाती है । मानसिकता तो है । ज्यादा दिखावा ठीक नहीं है । "


जिससे गोकुल का मन टूट जाता था। आखिरकार गोकुल की शादी तय हो ही गई। वह लड़की गोकुल की अपनी पसंद  थी , लड़की बहुत सुंदर, सुशील, सभ्य और संस्कारी थी, लेकिन आर्थिक रूप से काफी गरीब थी। फिर भी गजानन बहुत खुश था। उसने गोकुल को विवाह-व्यय के रूप में व्यक्तिगत तौर पर बीस हजार रुपये दे दिए। यह देखकर गोकुल अपने पिता का चेहरा देखने लगा — इतना खर्च, वह भी मेरे लिए!


बाकी के खर्च उसने स्वयं किए, जिनमें उसकी कंजूसी साफ दिखाई दे रही थी।


जब बारात लड़की के द्वार पर पहुँची, तो गजानन के कुछ रिश्तेदार आपस में कानाफूसी करने लगे —


“न जाने क्यों इतने साधारण घर में रिश्ता किया गया। यहाँ से तो दहेज में कुछ मिलने वाला नहीं है।”


कुछ तो ऐसे भी थे जो अपनी यह बात गजानन के सम्मुख ही कहने से नहीं चूके।


परंतु गजानन शांत भाव से सबकी बातें सुनते रहे। जब अधिक कहासुनी होने लगी, तब वे गंभीर स्वर में बोले —


“भाइयो, मुझे दहेज में कुछ भी नहीं चाहिए। यह विवाह मेरे पुत्र की इच्छा से हो रहा है। जीवन उसे बिताना है, मुझे नहीं। दहेज जैसी कुरुति में मैं विश्वास नहीं रखता। लड़की के माता-पिता अपनी सामर्थ्य और इच्छा के अनुसार जो कुछ भी दें, वह उनके स्नेह का प्रतीक है, लेन-देन का विषय नहीं।


और रही बात दहेज की — दहेज तो लड़के या उसके पिता को नहीं दिया जाता; वह तो उस कन्या की सुविधा के लिए होता है, जो अपना घर-आँगन छोड़कर हमारे घर आ रही है। मनुष्य की प्रतिष्ठा दान या धन से नहीं, उसके संस्कारों और चरित्र से आँकी जाती है।”


यह सुनकर वहाँ उपस्थित सब लोग मौन हो गए। गजानन की बातों में सच्चाई, मर्यादा और संवेदनशीलता झलक रही थी। उस क्षण ऐसा लगा मानो किसी ने समाज की कुरीतियों को शब्दों में चुनौती दे दी हो।
गोकुल अपने पिता जी के विचार सुनकर और व्यवहार देखकर हतप्रभ रह गया।

-राजकपूर राजपूत "राज "

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