बिना पते की चिट्ठी-भाग छः Letter without Address - Part Six उसकी आँखों में खुशी की चमक छलक उठी।
हृदय कह रहा था,
शालिनी शायद अब भी मेरा इंतजार कर रही है।
और वह तय कर चुका था —
वह जाएगा, उससे मिलने।
आंखें उसकी यादों में भीगती रहीं,
और पेन की स्याही कागज़ पर एक नई कहानी उकेरने लगी।
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घर में पिछले दो दिनों से अजीब-सी हलचल थी। सुबह से शाम तक सबके चेहरों पर उत्सुकता और उलझन का मिश्रण दिखाई देता था।
कभी बैठक के मेज़ पर, कभी आँगन के किसी कोने में, और कभी खिड़की की चौखट पर — हर जगह कोई-न-कोई रहस्यमयी लिफाफा मिल ही जाता था।
कभी रवि को तो,  कभी उसकी पत्नी को, कभी उसकी मां को तो कभी उसके पिता को, वह लिफाफा मिल ही जाता था । 
Letter without Address - Part Six
कोई नहीं जानता था कि इन्हें वहाँ कौन रख जाता है।
पहले दिन सबने मज़ाक समझा, लेकिन जब दूसरे दिन भी एक नया लिफाफा मिला, तो घर का माहौल कुछ गंभीर हो गया।
लिफाफा हल्के पीले रंग का था, जैसे उसमें किसी पुराने वक़्त की याद छिपी हुई थी ।
जब उसे खोला गया, तो भीतर एक छोटा-सा पत्र था —
शब्द स्याही से नहीं, जैसे किसी इंतज़ार से लिखे गए थे।
“तुम आना,
शहर के उस कोने पर
जहाँ साँझ सुनहरी होती है,
मैं तुम्हारा इंतज़ार करूँगा।
तुम्हारा....”
पत्र पढ़ते ही घर में सन्नाटा छा गया।
हर किसी के मन में एक ही सवाल था — यह पत्र किसके लिए है, और कौन है वह ‘तुम्हारा’?
शायद अगला लिफाफा इस रहस्य का उत्तर लेकर आएगा...
हर दूसरे या तीसरे दिन घर के किसी न किसी कोने में एक नया लिफाफा मिल ही जाता था। कोई समझ नहीं पाता था कि यह रहस्य क्या है, आखिर यह सब कर कौन रहा है।
रवि शहर का एक जाना-माना व्यक्ति था — समाज में उसका नाम था, पड़ोस में उसका दबदबा। राजनीति से जुड़े बड़े लोगों से उसका उठना-बैठना था, और शहर के वे तमाम बदमाश भी उसे भली-भाँति जानते थे जो मारपीट में माहिर थे।
ऐसे में यह सोचकर हैरानी होती थी कि आखिर किसकी हिम्मत हुई जो रवि के घर के आस-पास भी फटक सके!
पड़ोस में सबसे पूछताछ की गई। पत्र की लिखावट को कई आवारा लड़कों की लिखावट से मिलाया गया, मगर नतीजा वही निकला — वह रहस्यमयी लिफाफा भेजने वाला अब भी अज्ञात था।
कुछ पत्रों में, प्रेम की बातें स्पष्ट थी ।
अब भी तुम्हारे नाम की खुशबू है,
हर शब्द में धड़कता है
मेरा अधूरा इज़हार।
मैं तुमसे प्रेम करता हूँ —
यह तुम जानती भी हो,
पर शायद अब
भूल चुकी हो उस प्यार को।
कई बार मैंने
इशारों में तुम्हें पुकारा,
हर राह पर ठहरकर
तेरी आहट सुनी।
पर तुम नहीं आईं —
बस ख़ामोशी आई,
और मैं लौट आया
खाली हाथ,
मायूसी से भरा दिल लिए।
---तुम्हारा 
घर में एक अजीब-सा सन्नाटा पसरा था। वातावरण में जैसे किसी अनकहे भय की गंध तैर रही हो। आखिर यह पत्र कौन लिख रहा है — जिसमें न भय की झलक है, न संकोच की? घर की लड़की तो ऐसी नहीं कि किसी बुरे रास्ते पर चली जाए। फिर भी मन में प्रश्न उठता — फ़ोन तो उसके पास है, यदि सचमुच कोई प्रेम-संबंध होता, तो बातें उससे हो जातीं। पर यह पत्र... यह चुपचाप आने वाला पत्र सबकी समझ से परे था।
वे लोग खुद ही सवाल उठाते, खुद ही उनके जवाब गढ़ लेते — और फिर भी असमंजस की वह धुंध और गहरी होती जाती।
धीरे-धीरे यह बात मोहल्ले में भी फैलने लगी। कोई कहता, “आजकल की लड़कियाँ बड़ी चालाक होती हैं,” तो कोई फुसफुसा कर कह देता, “कहीं कोई पुराना बदला तो नहीं?” माँ हर शाम दरवाज़े की ओर देखती रहती, जैसे वह व्यक्ति आकर ही सारा रहस्य सुलझा देगा। और जब लिफ़ाफ़ा उनके हाथ में आता, तो उनके हाथ हल्के-से काँप जाते।
उस दिन भी वही हुआ। नीले रंग के लिफ़ाफ़े में सधी हुई लिखावट — “प्रिय, सत्य हमेशा छिप नहीं सकता।” बस इतना ही लिखा था। न नाम, न कोई निशान।
पिता ने चश्मा उतारते हुए गहरी साँस ली। “अब तो हद हो गई,” वे बोले, “ये अगर किसी की शरारत है, तो इसका अंत होना चाहिए।”
पर भीतर ही भीतर, माँ को लगता रहा — इस लेखनी में कोई जाना-पहचाना दर्द है। जैसे किसी ने बहुत पास से, बहुत भीतर से लिखा हो। जो जानता है कि इसी घर में उसकी चाहत है । 
उसे लगने लगा हो ना हो ज़रूर घर की कोई लड़की है । जो लड़के से नहीं मिल रही है । फ़ोन से बात नहीं कर रही है या फिर लड़के से नाराज़ है ...नज़र रखनी पड़ेगी ।
उसके बेटा रवि को अपनी बहनों पर विश्वास है, मुझे नहीं । दो लड़कियां हैं - जिसमें से एक की  अभी उम्र नहीं हुई है । इतनी छोटी सी उम्र में कोई ऐसी-वैसी हरकत नहीं करेंगी । हां, बड़ी बेटी ने जरूर गलती की होगी । जिससे बात या नाराजगी होगी । घर के पुरूषों को सोचना चाहिए कि घर की लड़कियों से भी पूछ लें । मगर उसे तो अपने घर पर अभिमान है । एक उम्र होती है, बच्चे बहक जाते हैं । 
यही सोच थी जिसके कारण रवि की मां चिंतित हो गईं । आजकल का जमाना.. किस पर भरोसा करें । 
कुछ देर तक वह सोचती रहीं, फिर मन में एक निर्णय उभर आया — “इन पत्रों में जरूर कुछ न कुछ छिपा है।” उन्होंने ठान लिया कि इनमें से कुछ पत्र अपनी बेटियों को ज़रूर दिखाएँगी। आखिर बेटियाँ समझदार हैं, चेहरे की भाषा पहचान सकती हूं। इन पंक्तियों के पीछे भावनाएँ कैसी हैं — सच्ची, मासूम या कहीं प्रेम-व्यवहार का आरंभ।
मां ने गहरी साँस ली। अगर सच में यह प्रेम का मामला निकला, तो उन्हें बहुत संभलकर कदम उठाने होंगे। बेटी तो अभी जीवन की शुरुआत में है, ज़रा सी भूल उसका रास्ता बदल सकती है। उन्होंने मन ही मन ठान लिया — जो भी हो, इस बार जल्दबाज़ी नहीं करेंगी; समझदारी और ममता, दोनों से काम लेंगी।
क्रमशः
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