अब मैं कैसे कहूं - कविता

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 अब मैं कैसे कहूं

प्रेम की बात
लोगों को नफरतों में
जीने की आदत हो रही है
अब सुहाते नहीं अच्छी बात
बस फारवर्ड करने की
आदत हो रही हैं
कोई गाली दे रहे हैं
कोई पत्थर फेंक रहे हैं
कोई तन से सर जूदा कर रहे हैं
फिर भी कोई समर्थन कर रहे हैं
उसकी उदासीनता बताती है
अब सत्य में मज़ा नहीं
मतलब निकालना कोई गुनाह नहीं  !!!

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अब मैं कैसे कहूं
तुने मुझे कभी निश्चित नहीं किया
अपने प्रेम में
जब भी मुलाकात के बाद
अलग हुए
तो ऐसे हुए
जैसे हम तुम सचमुच अलग है  !!!

शायद संशय था
प्रेम में
जब भी विदा लिए तुमसे
ऐसा लगा
तुम मेरे बिना
खुश हो बहुत !!!!

अब मैं कैसे कहूं
समझदारी मान कर
नंगेपन को
शहर के बाहर छोड़ा था
वो घर के अंदर आने की कोशिश कर रहे हैं

बाहर ही टोकता
या रोकता
यूं चौखट पर
आने की हिम्मत न करता !!!!

अब मैं कैसे कहूं
जीवन में तुने समझदारी दिखाई
प्रेम में लाचारी दिखाई
यहां कह कर
फायदा नुकसान देखना पड़ता है
शिक्षित व्यक्ति को !!!

हार तो मैं नहीं कहुंगा
लेकिन हारता हुआ देखूंगा
तुम जिसे
मुंहफट समझ रहे हो
वो भीड़ में बदल चुकी है
बताओं तुम अकेले
किसको समझाओगे !!!!






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