बुद्धिजीवियों और जनसाधारण में यही अंतर है कि - एक उपदेश देता है, दूजा उसको सत्य मानकर चलते हैं ।
जब सत्य का प्रतिपादन अपने-अपने नजरियों से किया जाता है तो वहॉं सत्य ,सत्य नहीं रह जाता हैै । किसी सिद्धांत को या विचार को स्थापित करने का प्रयास होता है । जो लोगों को बहलाकर , परिवर्तन करने का प्रयास है । अपने विचारों को थोपना है । हालांकि सच्चाई को एक( दूसरे ) नजरिए से प्रस्तुत किया जाता है । ताकि लोगों को लगे कि जो सामने सच्चाई है , वह भ्रम है । असल में जो बुद्धिजीवी द्वारा कही गई बातें हैं, लोगों को बिल्कुल सत्य महसूस होते हैं । क्योंकि ज्यादातर लोग स्वयं के नजरिए से नहीं देखते हैं । किसी सच को । उनके पास फुर्सत नहीं होते हैं,, सोचने के लिए । या फिर इतने सोचने की क्षमता नहीं होती है । उनके लिए सामने वाले जिस रूप में प्रस्तुत करें । उनके लिए वही सत्य प्रतीत होता है । ऐसे लोगों को सभी बातें सच लगने लगते हैं । उसके पक्ष भी और विपक्ष भी ।
जनसाधारण और बुद्धिजीवियों की बातें
क्योंकि जनसामान्य उन पहलुओं को नहीं सोच पाते हैं । जो बुद्धिजीवी लोगों के द्वारा प्रस्तुत किए जाते हैं । खुद को उनसे कमजोर आंकते हैं और बुद्धिजीवियों को महान । जबकि बुद्धिजीवियों के द्वारा प्रस्तुत सत्य जरूरी नहीं है कि पूर्ण सत्य हो । क्योंकि ज्यादातर बुद्धिजीवी लोग अपने नजरिए,, दिल्लगी,, विचारों से बाहर निकल के सत्य का पूर्ण समर्थन नहीं कर सकते हैं । वो केवल अपने तर्क क्षमताओं से भिन्न या उच्च प्रतीत होते हैं । जबकि उनकी सोचने की क्षमता अपनी सोच तक ही सीमित होती है ।
बुद्धिजीवियों का दोगलापन -
ऐसे में निष्पक्षता की उम्मीद करना बेईमानी है । क्योंकि ये लोग अपनी तार्किक क्षमताओं से लोगों के विचारों का निर्माण करते हैं । ताकि लोग उनके अनुकूल सोचने के लिए प्रेरित हो और उसके दृष्टिकोण को को प्रतिपादित होने में ज्यादा परेशानी न हो ।
अपने प्रभाव में लेने के लिए कई तर्को का सहारा लेते हैं । जिसे सुनने के बाद अच्छे-अच्छों की बौद्धिक क्षमता विवश महसूस करते हैं । ऐसे बुद्धिजीवों को पार पाना मुश्किल होते हैं ।
जब ऐसे बुद्धिजीवी लोग रहेंगे तब तक सर्वमान्य सत्य को स्थापित होने में दिक्कत रहेगी । क्योंकि एक बार इनका पैंठ जनसामान्य के बीच में बन जाने के बाद इसे हराना कठिन है ।
---राजकपूर राजपूत''
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