क्या जिंदगी हो गई है इंसानों की

  Kya-jindgi-ho-gai-hai-inshanon-ki-    रिश्ते ऐसे उलझे हुए हैं कि सुलझने का नाम नहीं लेता है । ऐसे नहीं हैं कि रिश्ते सुलझ नहीं पाएंगे । बस फुर्सत नहीं निकालते हैं । जान बुझकर अनजान बनने की कोशिश होती है । जहां फायदा है वहां रिश्तों में अपनापन है । जहां नुकसान वहीं दूरी । ऐसे में लोगों का व्यवहार दिमाग से चलने लगते हैं और दिल का मायने नहीं रखते हैं । 

Kya-jindgi-ho-gai-hai-inshanon-ki-

क्या जिन्दगी हो गई इन्सानों की
देखो ! झूठ सच हो गए इमानों में

धुंध,घना कोहरा उजाला ना दिखा
ये अधुरा तड़प छोड़ गया अरमानों में

बहस छिड़ी गांव -शहर ये जिन्दगी
फैसला ना हुआ अब के विद्वानों में

क्या अजीब हालत हो गई अपनी 
हमसफर छोड़ गया अनजानों में

अजीब कशमकश बेचैन है दिल 
किसका हाथ पकड़े इन नादानों में

कोई समझे न समझाने से
रहते हैं अपनो के बीच अनजानों में

वो सुलझाना नहीं चाहता है उलझन को
फिर भी ज़माना मानते हैं विद्वानों में !!

जिंदगी एक सच्चाई -


उसके तर्क अपनी सुविधाओं से
रिश्ते बनाते हैं फायदे से 
मतलब निकाल लेते हैं बेगानों से
जहां फायदा न हुआ
बन जाते हैं अनजानों से !!

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___ राजकपूर राजपूत'

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