बिना पते की चिट्ठी-भाग सत्रह Letter Without Address - Part Seventeen
जोहान को एक दोस्त के यहाँ अस्थायी ठिकाना मिल गया था, मगर मन अब भी भटक रहा था। शालिनी की आवाज़ बार-बार उसके कानों में गूँज रही थी—“मैंने चुप रहना छोड़ दिया है।” इतने दिनों बाद यह वाक्य उसे किसी सहारे की तरह लगा। पहली बार उसे लगा कि यह लड़ाई सिर्फ़ उसकी नहीं रही।
अगले दिन शालिनी का घर भारी-भारी खामोशियों से भरा था। भाई उससे नज़रें चुरा रहा था, पिता सोच में डूबे थे और माँ बार-बार उसे देख रही थीं, जैसे उसकी आँखों में कोई जवाब ढूँढ रही हों। दोपहर के वक़्त माँ ने धीरे से कहा, “शाम को तुम्हारे मामा आ रहे हैं। तुम्हारे पापा ने उन्हें सब बता दिया है।”
Letter Without Address - Part Seventeen
शालिनी समझ गई—अब बात सिर्फ़ घर की नहीं रहने वाली थी। रिश्तेदार, सलाहें, ताने और डर—सब एक-एक कर सामने आने वाले थे। फिर भी उसके भीतर कोई अजीब-सी मजबूती थी। डर था, लेकिन अब वह डर उसे चुप नहीं करा रहा था।
मामा के आने का इंतज़ार शालिनी को बेसब्री से था, लेकिन वे थे कि आने का नाम ही नहीं ले रहे थे। हर बीतता दिन उसकी बेचैनी को और बढ़ा देता। नंदा देवी बार-बार उसे समझाने की कोशिश करतीं—“यह प्यार-व्यार कुछ नहीं, बस एक जुनून है। इसमें भावनाएँ तो बहुत होती हैं, लेकिन समझदारी की कमी रहती है।” वे अपने अनुभव के सहारे शालिनी को सचेत करना चाहती थीं, पर उनकी बातें अब शालिनी के मन तक पहुँच ही नहीं पाती थीं।
शालिनी अपनी ही दुनिया में खो चुकी थी। उसकी आँखों पर भावनाओं की ऐसी पट्टी बँधी थी कि माँ की हर सलाह उसे रोक-टोक और विरोध लगती। वह अपने फैसले पर अडिग थी और अपने इरादे घरवालों के सामने साफ-साफ रख चुकी थी। उसे लगता था कि उसने जो सोचा है, वही सही है और अब पीछे हटने का कोई सवाल ही नहीं उठता।
लेकिन समय के साथ-साथ शालिनी को कुछ बातें खटकने लगीं। जिन लोगों से उसे सबसे ज़्यादा सहारे की उम्मीद थी, वही उसकी भावनाओं को हल्के में ले रहे थे। धीरे-धीरे उसे यह समझ आने लगा कि उसके अपने ही घरवाले उसकी भावनाओं को समझने के बजाय उनसे खिलवाड़ कर रहे हैं। यह एहसास उसके लिए बेहद पीड़ादायक था—जहाँ उसे अपनापन चाहिए था, वहाँ उसे अनदेखी और छल का सामना करना पड़ रहा था।
अब शालिनी को यह साफ़ महसूस होने लगा था कि घरवाले जानबूझकर उसका ध्यान भटकाने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि सही समय आने पर उसे किसी तरह बहलाया जा सके और उसके इरादों को बदल दिया जाए। उन्हें लगता था कि वक्त के साथ शालिनी खुद ही थक जाएगी या हालात के दबाव में समझौता कर लेगी। लेकिन शालिनी ने मन ही मन ठान लिया था कि वह ऐसा कभी नहीं होने देगी।
इस सोच ने उसे भीतर से और कठोर बना दिया था। उसे लगने लगा था कि जिन लोगों से उसे समझ और सहारे की उम्मीद थी, वही उसके सपनों और भावनाओं को कमज़ोरी समझ रहे हैं। धीरे-धीरे वह घरवालों की परवाह करना छोड़ने लगी। अब न उनकी बातों का उस पर असर होता था, न उनकी भावनात्मक अपील का। शालिनी अपने निर्णय के साथ खड़ी थी, अकेली सही, लेकिन पूरी दृढ़ता के साथ।
घर का बेरुखा व्यवहार अब उसे चुभता नहीं था, क्योंकि उसी बेरुखी में जोहन से उसका जुड़ाव और गहराता जा रहा था। अपनों की उदासीनता के बीच वही उसका अपनापन बन गया था। वह उसकी यादों में ही सोती थी और उन्हीं स्मृतियों में आँखें खोलती थी। रातें उसके ख्वाबों से रौशन रहतीं और दिन उसी के ख़यालों में ढल जाते।
वह जानती थी कि उसका प्रेम वास्तविक मुलाक़ातों से नहीं, स्मृतियों की कोमलता से जीवित है। उसकी एक मुस्कान, एक अधूरा वाक्य, एक अनकहा स्पर्श—सब कुछ उसके मन में सहेजकर रखा हुआ था। उन्हीं स्मृतियों में वह अपनी ज़िंदगी बुन रही थी, जैसे हर सपना उसके नाम पर कढ़ा गया हो।
प्रेम उसे सबसे सुंदर तब लगता, जब वह उसकी अनुपस्थिति में भी पूरी तरह मौजूद रहता। जब जोहन का ख़याल अविराम गति से उसके भीतर बहता, तब संसार का कोई शोर, कोई हस्तक्षेप उसे सह्य नहीं होता। उस प्रेम में अधिकार नहीं था, बस एक निस्सीम प्रतीक्षा थी—शांत, गहरी और सम्पूर्ण।
इन्हीं स्मृतियों को मन में सँजोए हुए शालिनी ने जोहन से फोन पर बात की। इतने दिनों बाद उसकी आवाज़ सुनते ही जोहन का धैर्य जैसे टूट गया। उसकी आवाज़ में नाराज़गी साफ झलक रही थी। वह रूखे स्वर में बोला,
“इतने दिनों बाद मुझे फोन किया है। मैं कैसे जी रहा हूँ, तुम्हें ज़रा-सी भी परवाह नहीं है?”
जोहन की इस नाराज़गी पर शालिनी ने कोई उत्तर नहीं दिया। न तो उसे बुरा लगा और न ही उसे अपनी चुप्पी का मलाल हुआ। बल्कि उस कठोरता के पीछे छिपा प्रेम वह साफ़ महसूस कर पा रही थी। उसकी नाराज़गी में भी अधिकार था, अपनापन था। उसे लगा कि जोहन को डाँटने-फटकारने का पूरा हक़ है। यह गुस्सा नहीं, बल्कि वह प्रेम था जो दूरी के कारण शब्दों में कड़वाहट बनकर बाहर आ रहा था। शालिनी मन ही मन मुस्कुरा उठी—कुछ रिश्ते शिकायतों में भी सुकून दे जाते हैं।
शालिनी की चुप्पी अब जोहन को भीतर तक कचोटने लगी थी। हर बीतता दिन उसके मन में अनगिनत सवाल खड़े कर रहा था। वह जानता था कि शालिनी किसी गहरे द्वंद्व में फँसी हुई है, लेकिन उसकी खामोशी उसे बेचैन कर रही थी।
आख़िरकार वह खुद को रोक नहीं पाया।
“क्या हुआ, शालिनी?” जोहन की आवाज़ में चिंता साफ़ झलक रही थी।
“तुमने कहा था कि घर के लोगों से खुलकर बात करोगी, उन्हें सब कुछ समझाओगी। फिर अब तक कुछ क्यों नहीं बताया? तुम्हारी यह चुप्पी मुझे डरा रही है। ऐसा लग रहा है जैसे तुम मुझसे दूर होती जा रही हो।”
कुछ पल का सन्नाटा छा गया। फिर वह गहरी साँस लेकर बोला,
“मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ, शालिनी। किसी भी हाल में कोई बहाना मत करना। मुझे तुम्हें सामने से देखकर बात करनी है। यह अनिश्चितता अब सहन नहीं हो रही। अगर तुम कुछ नहीं कर पा रही हो, तो अब मुझे ही आगे आकर कुछ करना पड़ेगा।”
दूसरी ओर शालिनी की आँखें नम हो गईं। वह जो कहना चाहती थी, कह नहीं पा रही थी। घर की बंदिशें, रिश्तों का दबाव और समाज का डर—सब कुछ उसे जकड़े हुए था।
भरे हुए गले से उसने कहा,
“हाँ, जोहन… घर वालों को समझाना मेरे बस की बात नहीं है। मैं चाहकर भी उनके सामने सच नहीं कह पा रही हूँ। हर बार हिम्मत करती हूँ, लेकिन ...।”
थोड़ा रुककर उसने आगे कहा,
“अब तुम ही कुछ करो। जो भी रास्ता तुम चुनोगे, मैं तुम्हारे साथ हूँ। तुम जैसा कहोगे, मैं वैसा ही करूँगी। मुझे बस इतना भरोसा है कि तुम मुझे इस हाल में अकेला नहीं छोड़ोगे।”
जोहन ने मन ही मन ठान लिया था—अब पीछे हटने का कोई रास्ता नहीं था।
क्रमशः
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