बिना पते की चिट्ठी-भाग दस Letter Without Address - Part Ten

 बिना पते की चिट्ठी-भाग दस Letter Without Address - Part Ten  माँ के चेहरे पर चिंता और स्नेह का एक अजीब-सा संगम था — आँखों में अनकही फिक्रमंदी, और होंठों पर मुस्कान जो न तो पूरी तरह स्नेह भरी थी, न पूरी तरह सख़्त। शायद वह सोच रही थीं कि उनकी बेटी, जो अब उनके आँचल से निकलकर अपने फैसले खुद लेने लगी है, कहीं किसी ऐसे रास्ते पर तो नहीं बढ़ रही जहाँ लौटना मुश्किल हो।


“लड़का कौन है, शालिनी? कहाँ का है? तुम जानती हो न उसे?” माँ की आवाज़ अचानक कमरे की निस्तब्धता को चीरती हुई गूंजी।

Letter Without Address - Part Ten 

शालिनी चौंक पड़ी। उसके चेहरे पर एक पल के लिए अचंभा और भय दोनों झलक गए।

“कौन लड़का, माँ? और कहाँ का? आप ऐसे क्यों कह रही हैं?” उसकी आवाज़ काँप उठी।


माँ ने गहरी साँस ली।

“मुझे सब पता है, शालिनी,” उन्होंने धीमे, लगभग फुसफुसाते हुए कहा, “इस उम्र में ऐसा होना असामान्य नहीं है। शारिरिक बदलाव और मन , नई दिशाओं को टटोलने लगता है... और दिल, अपने ही बनाए नियम तोड़ने लगता है। जैसे कि तुम कर रही हो । ”


"क्या हो गया है, माँ?” शालिनी ने धीमे स्वर में कहा। उसकी आवाज़ में झिझक भी थी और बेचैनी भी।


माँ ने उसे कुछ पल गहराई से देखा — जैसे उसकी आँखों के भीतर झाँक लेना चाहती हों।

“तुम किसी के वचन में बँधी हुई लगती हो,” उन्होंने शांत पर कठोर लहजे में कहा, “कुछ है जो तुम कहना नहीं चाहती। पर याद रखो, मैं तुम्हारे हर हावभाव, हर नज़र को पढ़ लेती हूँ। ये जो प्रेम-व्रेम होता है न, ये बस मन की एक भूख है। जैसे भूख लगने पर भोजन की व्याकुलता शरीर को खींच लेती है — बस, यही वैसा ही है। इसके सिवाय कुछ नहीं।”


शालिनी हकला गई।

“माँ, आप क्या कह रही हैं? मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा...”


उसके स्वर में मासूमियत थी, पर आँखों में कहीं न कहीं माँ की बातों की चुभन भी उतर चुकी थी।


शालिनी अपने कमरे में एक कोने पर किताबों को उलट-पलटने लगी। पन्ने खुलते रहे, पर मन बंद-सा पड़ा था। भीतर एक अजीब-सी घुटन थी — जैसे कोई अनकहा बोझ उस पर सवार हो।

वह मन-ही-मन झुँझला उठी — माँ चली क्यों नहीं जातीं? बस कुछ पल अकेला रहने दें...


उधर माँ भी चुप थीं, पर उनका मौन बहुत कुछ कह रहा था। उनका मन थक चुका था — समझाने की कोशिश में, और शायद खुद को तसल्ली नहीं दे पा रही थीं । 

वह जानती थीं, जब कोई अपने मन की आग में जलने लगे, तब शब्द अक्सर राख बनकर गिर जाते हैं। किसी की ज़िद जब मूर्खता में बदल जाए, तो उसे समझाना उतना ही कठिन होता है, जितना तूफ़ान के बीच दीपक को जलाए रखना।


रात गहराने लगी थी। खिड़की के बाहर चाँद आधा था — जैसे किसी ने उसका एक हिस्सा चुरा लिया हो। कमरे की दीवार पर परछाइयाँ काँप रही थीं।

शालिनी बिस्तर पर बैठी थी, पर नींद उससे कोसों दूर थी। माँ के शब्द अब भी कानों में गूंज रहे थे — “ये प्रेम-व्रेम कुछ नहीं होता…”


उसने आँखें मूँद लीं, पर भीतर का शोर और बढ़ गया।

क्या सच में माँ ठीक कह रही हैं?

क्या ये सिर्फ़ एक क्षणिक आकर्षण है? या सच में… मैं किसी को महसूस करने लगी हूँ?

नहीं... नहीं, मैं उसके बिना नहीं रह सकती। अब वह केवल मेरी ज़िंदगी का एक हिस्सा नहीं रहा, बल्कि मेरी साँसों में बस चुका है। उसके बिना अब सब कुछ अधूरा लगता है — जैसे दिल धड़कना भूल जाए, जैसे रौशनी के बिना दिया बुझ जाए। वह अब मुझमें रच-बस गया है, मेरे अस्तित्व का अभिन्न भाग बन चुका है।

मैं जब मुस्कुराती हूँ तो उसकी छवि उभर आती है, जब रोती हूँ तो वही मुझे सँभाल लेता है — भले ही वह आसपास न हो, फिर भी हर पल उसके होने का एहसास बना रहता है।

अब उसके बिना ज़िंदगी की कल्पना भी नामुमकिन लगती है...। 


उसका मन जैसे दो दिशाओं में खिंच रहा था — एक ओर माँ की समझ, वर्षों के अनुभव की ठंडक; दूसरी ओर अपने दिल की गर्म धड़कनें, जो किसी के नाम पर तेज़ी से चलने लगी थीं।


उसने धीरे से खिड़की खोली। बाहर हवा में ठंडक थी, पर उसके भीतर बेचैनी की गर्मी थी।

“काश माँ समझ पातीं…” उसने फुसफुसाकर कहा, “कि ये सब बस एक जज़्बात नहीं — कुछ ऐसा है जिसे मैं खुद भी पूरी तरह समझ नहीं पा रही।”


चाँद की रोशनी उसके चेहरे पर गिर रही थी — फीकी, पर सच्ची।

उस रात शालिनी ने बहुत देर तक आसमान को देखा।

शायद पहली बार, वह माँ की कही हर बात को नकारते हुए भी, उनके डर को समझने लगी थी।


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अगली दोपहर शहर की हल्की ठंडी हवा में एक होटल की खिड़की के पास शालिनी बैठी थी। सामने जोहन था — वही जिसकी यादों में रातें गुजरती है । हृदय मचलता है । 


जोहन की मुस्कान हमेशा की तरह सहज थी, लेकिन आज शालिनी के चेहरे पर वही सुकून नहीं था।


“क्या हुआ, तुम चुप क्यों हो?” जोहन ने पूछा, कप से उठती भाप को देखते हुए।


शालिनी ने गहरी साँस ली।

“कल रात माँ से बात हुई थी,” उसने धीमे स्वर में कहा। “वो... तुम्हारे बारे में पूछ रही थीं।”


जोहन थोड़ी देर चुप रहा, फिर मुस्कराया, “अच्छा? तो क्या बताया तुमने?”


शालिनी ने नज़रें झुका लीं, उसके दिल की धड़कनें शब्दों में बदलने को बेकरार थीं।

“कुछ नहीं… बस इतना कि हमारे बीच एक रिश्ता है। लेकिन माँ को लगता है कि ये सब सिर्फ एक आकर्षण है, एक फुसफुसाती मूर्खता।”


जोहन की आँखों में हल्की चमक थी। “कितना अच्छा लगता है जब कोई कहता है कि हम दोनों एक-दूसरे के लिए बने हैं।” उसकी बातों में मज़ाक था, पर दिल की गहराई कुछ और ही कह रही थी।


शालिनी की निगाहें उसकी ओर टिक गईं, आवाज़ में गंभीरता और थमी हुई आशंका थी।

“ये मज़ाक नहीं है, जोहन। धीरे-धीरे… हमारे प्यार में बंदिशें डाल दी जाएँगी। जो अब महसूस होता है, वही आने वाले कल को बांध लेगा।”


जोहन के चेहरे से मुस्कान धीरे-धीरे उतर गई। उसकी आँखों में हल्की उदासी और संवेदनशीलता झलक रही थी।

“खैर… छोड़ो। लेकिन मुझे बताओ, तुम्हें क्या लगता है हमारे इस आकर्षण के बारे में?” उसने सीधे उसकी आँखों में झाँकते हुए पूछा, मानो उसकी आत्मा तक की सच्चाई जानना चाहता हो।


शालिनी कुछ पल चुप रही।

खिड़की के बाहर पेड़ों की पत्तियाँ हिल रही थीं, जैसे हर शब्द को सुन रही हों।

“मुझे नहीं पता, वो तुम जानों । ” उसने धीरे से कहा, “कभी-कभी लगता है, जो महसूस कर रही हूँ वो सच है... और कभी-कभी माँ की बातें याद आती हैं — कि ये सब बस एक गुज़रता हुआ पल है।”


जोहन ने उसकी ओर हाथ बढ़ाया, पर शालिनी ने धीरे से अपनी उंगलियाँ खींच लीं।

“माँ कहती हैं, भावनाएँ जब नई होती हैं तो उनमें आग ज़्यादा होती है, ,हाँ, वो जलती ज़्यादा है, उजाला कम देती है।”


जोहन ने लंबी साँस ली, “तो क्या तुम डर रही हो?”


शालिनी ने उसकी ओर देखा, उसकी आँखें नम थीं।

“डर... हाँ, शायद। माँ से नहीं, खुद से।”


कुछ पल दोनों के बीच सन्नाटा रहा। बाहर हल्की हवा चली — दूर किसी पुराने गीत की धुन भी । 

शालिनी उठी, अपना बैग काँधे पर लगाया और उसकी आँखों में गंभीरता के साथ बोली—

“मुझे थोड़ा समय चाहिए, जोहन… थोड़ा समय अपने आप को समझने के लिए। अब तुम्हें फैसला लेना है, कि हम आगे क्या करेंगे। अगर हम ऐसे ही मिलते रहे, तो खतरा हमेशा हमारे साथ रहेगा। मैं तुम्हारा इंतज़ार करूंगी… तुम्हारे फैसले का ...पर माँ की बातें गलत नहीं हैं। अब वह कुछ कदम उठाएँगी ।”


वह चली गई—और पीछे रह गया होटल का वही कोना, जहाँ दो अधूरी भावनाएँ हवा में टंगी रह गईं।

Letter Without Address - Part Ten


क्रमशः 

-राजकपूर राजपूत "राज "

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