बिना पते की चिट्ठी-भाग नौ Letter Without Address - Part Nine

 बिना पते की चिट्ठी-भाग नौ Letter Without Address - Part Nine

क्षण भर के लिए समय जैसे थम सा गया।

सिर्फ़ दीवार पर लगी घड़ी की टिक-टिक का धीमा स्वर कमरे में गूँज रहा था।

माँ चुपचाप कुछ पल वहीं खड़ी सोच में डूबी रहीं, शालिनी के हर हाव-भाव को गौर से देख रही थीं। दिल में कुछ सवाल उमड़ रहे थे, पर होंठों पर न तो कोई शब्द आए और न ही कोई प्रतिक्रिया। उन्होंने शालिनी से कुछ कहा नहीं, बस मौन में सारी बातें पढ़ लीं।

अब माँ उसके सामने कुछ नहीं कहती थीं।

घर में अजीब सी गहरी शांति थी—काफी दिनों से कोई लिफाफा या पत्र नहीं आया था।

घर के अन्य लोग मानो इस अनकहे रहस्य को भूल चुके थे, जैसे कभी ऐसा कुछ हुआ ही न हो।

Letter Without Address - Part Nine

पहले कभी-कभी बिना पते के प्रेम पत्र आते थे, और उस समय हर कोई हल्के-से तनाव में रहता था। अब वह हलचल भी नहीं थी, केवल नीरवता फैली हुई थी।

केवल माँ ही थीं, जिनकी नज़र हर चीज़ पर पड़ी थी—शालिनी की हर हल्की-सी गतिविधि, हर छोटे बदलाव को उन्होंने महसूस कर लिया था। उनके भीतर एक अजीब सी , सतर्कता थी, एक अनकहा भय और सतर्कता का मिश्रण, जो पूरे घर के माहौल को मौन में दबाए हुए था।

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इधर शालिनी का जीवन जैसे किसी नए मोड़ पर आ गया था।

उसकी आँखों में अब एक अनजानी चमक थी, होंठों पर हर वक्त मुस्कान की हल्की परछाई।

हर दिन उसे नया लगता — जैसे सुबह की धूप अब पहले से ज़्यादा सुनहरी हो गई हो।

प्रेम ने उसके भीतर कुछ ऐसा बदल दिया था कि चेहरा खुद-ब-खुद दमक उठता था।

अब नीरसता या उदासी का कोई नामोनिशान नहीं था।

वह अपने प्रेम के सुरक्षित घेरे में, अपनी एक अलग दुनिया बुन चुकी थी — एक ऐसी दुनिया, जहाँ सिर्फ़ भावनाओं की सच्चाई थी, जहाँ हर धड़कन में किसी का नाम गूँजता था।

अब शालिनी जब चाहे, जोहन से मिल सकती थी — बिना किसी झिझक, बिना किसी रोकटोक के।

उनकी बातें घंटों चलतीं, कभी आमने-सामने, तो कभी फ़ोन पर धीमे स्वर में।

दोनों ने मिलने की जगह बदल दी थी; अब हर मुलाक़ात पहले से तय होती, फ़ोन पर कुछ इशारे, कुछ अनकहे शब्दों के साथ।

एक ही जगह बार-बार मिलने का मतलब था खतरा — और प्रेम, आखिर प्रेम ही तो है, जो हर बार अपनी नयी युक्ति निकाल लेता है।

जोहन अब एक कंपनी में नौकरी करने लगा था। ज़रूरत पड़ती तो देर रात तक ओवरटाइम भी करता । 

उस दिन शाम हल्की ठंडी थी। हवा में अजीब-सी मिठास घुली हुई थी।

शालिनी ने दुपट्टा ठीक करते हुए शीशे में खुद को देखा — चेहरे पर मुस्कान थी, आँखों में एक चमक।

वह तय जगह पर पहुँची, वही पुराना पार्क, पर अब किसी और कोने में।

थोड़ी ही देर में जोहन भी वहाँ आ गया।

उसकी नज़रों में वही अपनापन था, वही सुकून, जिससे शालिनी का दिल हर बार भर जाता था।

दोनों कुछ देर चुपचाप एक-दूसरे को देखते रहे — जैसे शब्दों की अब ज़रूरत ही न रह गई हो।

फिर बातों का सिलसिला शुरू हुआ, धीमे-धीमे, बिल्कुल हवा की तरह —

भविष्य के सपनों, परिवार की बातों और उस अनकही चिंता पर वे अक्सर देर तक बातें करते रहते — वह चिंता, जो परछाई की तरह हर समय उनके साथ चलती थी।

"हम लोग कब तक यूँ ही मिलते रहेंगे?" शालिनी ने धीरे से पूछा।

जोहन कुछ पल मौन रहा। हवा में ठहराव-सा था। फिर उसने शांत स्वर में कहा —

"जब तक तुम उस काम में पूरी तरह निपुण नहीं हो जातीं, जिसे तुम सीख रही हो। भविष्य भी तो देखना होगा, शालिनी।"


शालिनी मुस्कराई, पर उसकी आंखों में कहीं हल्की-सी बेचैनी थी।

"मां को शंका है कि मैं किसी के प्रेम में हूं," उसने धीरे से कहा।

जोहन ने उसकी आँखों में झाँकते हुए पूछा, “तो तुम उन्हें ऐसा एहसास क्यों कराती हो?”

वह मुस्कुरा दी — एक धीमी, शरारती हँसी के साथ। “मैंने कुछ नहीं कहा, जोहन। बस... माँ मेरी चपलता और मेरी आँखों को पढ़ लेती हैं।”


उसके बाद दोनों के बीच ऐसा सन्नाटा उतर आया, जिसमें शब्दों की ज़रूरत ही नहीं रही — मानो दिलों के बीच कोई अनकही बातचीत चल रही हो।

थोड़ी देर बाद जोहन ने धीमी आवाज़ में कहा, “लेकिन यह सब... अभी ठीक नहीं है। मैं एक गरीब आदमी हूँ, और तुम्हारा परिवार सम्पन्न है। वे तुम पर रोक लगा देंगे, शालिनी।”


शालिनी ने उसकी ओर देखा — उसकी आँखों में दृढ़ता और स्नेह दोनों थे।

“नहीं, जोहन,” उसने शांत स्वर में कहा, “तुममें समझदारी है, और भविष्य के लिए तुम्हारी योजना साफ़ है। हम दोनों कम में भी जी सकते हैं — बस मन से। जीवन को बेहतर होना चाहिए, पैसों को नहीं।”


और उस क्षण हवा में एक नई उम्मीद घुल गई — जैसे दोनों के बीच कोई अनकहा वादा आकार ले रहा हो। कुछ देर बात करने के बाद शालिनी घर की ओर चल दी । 

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प्रेम में बिछड़ने का डर उसके भीतर धीरे-धीरे थकावट की चादर बिछा रहा थी। वह हर पल किसी राह की तलाश में थी, कोई युक्ति, कोई मार्ग जो उसे सुरक्षित ले जाए। लेकिन रास्ते धुंधले और अनजाने लग रहे थे। इसी असमंजस में उसके कदम ढीले पड़ गए, मानो शरीर और मन दोनों ने हार मान ली हो।

जब शालिनी घर पहुँची, तो माँ का चेहरा नाराजगी और क्रोध की परतों से ढका हुआ था, मानो शालिनी का बाहर घूमना-फिरना उन्हें असहज कर रहा हो। शालिनी ने माँ की तीखी नजरों का सामना किया, लेकिन कुछ बोलने की हिम्मत नहीं हुई। वह चुपचाप अपने कमरे में चली गई, कदम धीमे, मन भारी।


माँ भी उसके पीछे आई, लेकिन उनके कदमों में कोई कठोरता और चिंता दोनों झलक रही थी।


“कम-से-कम बाहर से आने पर तो हाथ-मुँह धो लिया करो। बाहर की धूल बिस्तर तक पहुँच जाती है,” उन्होंने स्वर में कटुता और स्नेह का मिश्रण भरे अंदाज़ में कहा।


शालिनी ने हल्का सा सिर झुका कर उत्तर दिया, “कहाँ माँ, गाड़ी से आने-जाने पर भला धूल कैसे आएगी?” उसके शब्दों में एक तरह की धीरे-धीरे खिसकती बचपन की मासूमियत भी थी, जो उसे माँ के प्रति नरम दिल दिखाने पर मजबूर कर रही थी।


माँ ने साँस छोड़ी और स्वर को नरम करते हुए कहा, “हां, सही है, नहीं आएगी। वह तो तुम्हारे अपने हैं, तुम्हें कहां बुरा लगेगा।”

कमरे में एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। शालिनी की आँखों में  राहत नहीं थी । वह माँ की बातों का अर्थ अच्छे से समझ रही थी। पर माँ जानबूझकर व्यंग्यपूर्ण लहजे में व्यवहार कर रही थीं, जैसे हर शब्द में छुपा एक सीख और चेतावनी हो। माँ के चेहरे पर चिंता और स्नेह का मिश्रण साफ़ झलक रहा था — आँखों में एक अनकही चेतावनी, और होंठों पर हल्की मुस्कान। वह सोच रही थीं कि उनकी बेटी, जो उनके लिए सब कुछ है, कहीं गलत रास्ते पर तो नहीं जा रही।

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क्रमशः 

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-राजकपूर राजपूत "राज "


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