चालाकी - एक षड्यंत्र कहानी A Conspiracy of Cunning Story

A Conspiracy of Cunning Story  शेखर की बातें समझ से बाहर थी । जब भी बातें की,सब असहज महसूस करते थे । क्योंकि उसको टोकने की आदत थी ।


हालांकि उसका दावा था कि वह आधुनिक युग के तर्कशील व्यक्ति है । जिसे अंधविश्वास, ढकोसले पसंद नहीं था ।अब ढकोसले किसे कहें ? मतलब उसके अनुसार न हो । जब भी कोई बात होती तो वह सामने आ कर कह देता था । ऐसे, जैसे वह सबकुछ जानता है । देश दुनिया की बातों पर उसकी राय अलग ही थी । देश के प्रति उसका नकारात्मक विचार हीनता के भाव भरता था । वो हमेशा विदेशों की तारीफ किया करता था । उसके सुख-सुविधाएं, लाइफ स्टाइल की तुलना में उसे अपने देश में कमी नज़र आती थी । इसलिए बहुत लोगों को असहज महसूस कर देते थे । क्योंकि बोलते-बोलते कुछ ज्यादा बोल जाता था ।

A Conspiracy of Cunning Story

हालांकि उसके बोलने की आदत से बहुत लोग प्रभावित भी थे । उसे पढ़ा-लिखा समझता था ।


उस दिन दीनू को सरकारी आफिस में कुछ काम था । वह कभी भी ऐसे कामों में अकेले नहीं गया था। उसकी झिझक की वजह से उसे खुलकर बातें कहने में हिचकिचाहट होती थी ।


उसे शेखर को साथ ले जाना सही लगा । दोनों आफिस से काम करवा कर जब बाहर निकले तो शेखर कहने लगा - "साहब को चाय-पानी का खर्चा दे दो ।"


"किसलिए?"दीनू ने कहा ।


"तुम्हारा काम जल्दी हो गया । "



"हाँ, लेकिन यह सब करना उसी का काम है। रिश्वत लेने के चक्कर में ही घुमाते हैं। ऑफिस वाले कुछ इसी तरह की बातें करते हैं, इसीलिए मैं तुम्हें साथ लाया हूँ।"


"सबसे ऐसा ही कहते हैं, लेकिन आखिरकार उन्हें मनाना ही पड़ता है। इन लोगों को खुश करने का एक ही तरीका है—चाय-पानी के नाम पर कुछ पैसे दे दो। कभी और किसी काम में आ जाएँगे। आजकल ऐसा व्यवहार आम हो गया है। इससे संबंध बनते हैं।"


दीनू ने कुछ नहीं कहा, लेकिन शेखर की बात उसे ठीक नहीं लगी। वह समझ गया था कि यह सब उनके भीतर की बातें हैं—एक स्थापित सोच। जो रिश्वत लेने - देने को सही ठहरा रहा था ।


"चलो ना, मैं भी कहकर देखता हूँ।हाथ जोड़कर कहूंगा ।गरीब आदमी हूँ, साहब। पैसे-वैसे नहीं हैं मेरे पास। किसी तरह गुज़ारा होता है।"


"चलो!" शेखर ने कहा और ऑफिस के दरवाज़े के पास जाकर दीनू को यह कहकर रोक दिया, "पैसे मुझे दे दो और तुम उस पेड़ के नीचे मेरा इंतज़ार करना।"


दीनू वहीं खड़ा रहा।


शेखर भीतर जाकर साहब से कहने लगा,


"पैसे-वैसे ले लिया करो साहब। आजकल कोई नेक काम की कद्र नहीं करता।"


इतना कहकर उसने पैसे दे दिए।साहब मुस्कुराएं और कहा -


"वो तो ठीक है, लेकिन मैं एक कर्मचारी हूँ। किसी से सीधे नहीं कह सकता। इसके लिए आप जैसे लोगों की ज़रूरत होती है। देख लिया करो।"


शेखर मुस्कुराया और ऑफिस से बाहर निकल आया।


"तुम अभी तक यहीं हो?"


दीनू को देखकर कहा।


"हाँ, हो गया काम। मुश्किल से मानी बात। कम पैसों में निपटा दिया। पैसे गए तो क्या हुआ, कम से कम काम तो हुआ।"


उसकी बातें इतनी सधी हुई थीं कि दीनू इस नैतिकता के जाल में फँस गया, जहाँ वह साहब और शेखर के 'एहसान' के खिलाफ कुछ कह नहीं सका। ऊपर से शेखर की चालाकी भरी बातें।

दीनू को यह सब कुछ भीतर-ही-भीतर गलत लग रहा था, लेकिन वह मौन रहा। फिर भी, उसके मन में विचार अवश्य आया कि आजकल लोग अपनी मीठी और भरोसेमंद बातों से दूसरों को कैसे भ्रमित कर देते हैं, और फिर अवसर देखकर अपना स्वार्थ साध लेते हैं। वे बातों से ऐसा विश्वास दिलाते हैं मानो वही सबसे नेक और सहायक हों, लेकिन भीतर से केवल अपने लाभ की सोचते हैं।

उसे यह भी महसूस हुआ कि शेखर जैसे लोग वास्तव में चालाक और षड्यंत्रकारी होते हैं। वे दूसरों की मजबूरी का लाभ उठाकर न केवल अपना काम निकालते हैं, बल्कि सामने वाले को एहसान के बोझ तले दबा भी देते हैं। ऐसे लोग किसी के नहीं होते—ना व्यवस्था के, ना साथ चलने वाले के, और ना ही नैतिकता के। दीनू अब यह समझ चुका था, लेकिन व्यवस्था के जाल में फंसे एक सामान्य व्यक्ति की तरह वह चाहकर भी कुछ बोल नहीं सका।


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