- शहर जो कमाने जाते हैं ।Shahar-kamane-kya-aaye वे कोई मौज मस्ती में नहीं जाते हैं । अपनो का प्यार है । जो प्रेरित करते हैं कि अपनो के लिए खुशियां खरीदी जाय । जिसके लिए शहर में दिन रत मेहनत करते हैं । लेकिन जब वही आदमी वापस अपनो के बीच लौटते हैं तो उसे बेगाने समझे जाते हैं । जिसके कारण उस व्यक्ति को बहुत तकलीफ़ होती है । इस कविता👇👇
Shahar-kamane-kya-aaye
Shahar
का मेहमान -
हम कमाने शहर क्या गए
दो पैसा लाने क्या गए
जब वापस आए घर को
सब मेहमान समझने लगे
एक दूरी सी खींच गई थी
रिश्तों में शामिल होने के लिए
न खुल के हंस रहे थे
न खुल के कह रहे थे
सब मेहमान समझ रहे थे
किसी को पैसे कमाकर लाने की उम्मीद थी
किसी को तोहफा लाने की
सब शहर के हालात से अनजान थे
शहर की बेरूखी से
अपनापन की तलाश में था
शहर से लौट आए
अपनों के साथ में था
न प्यार पाया न अपनापन
कह नहीं रहे थे लेकिन
मैं मेहमान था !!
तेरा शहर में खुशी नहीं
गांव जैसी
तालाब नहीं
तालाब है
तो पेड़ नहीं
पेड़ है
तो चिड़िया नहीं
अगर चिड़िया होते
तो सुनाई देती
उसकी मधुर आवाज
तुने तो
ईंट पत्थरों के बीच
प्लास्टिक का
गमला रखें हो
मन बहलाने के लिए
जिसे खुशी मानते हो !!!
सिसकियां हैं
तेरे शहर के नीचे
किसी जंगल की
किसी पेड़ की
तुने सुनी नहीं है
इमारतों के नीचे की सिसकियां !!!
शहर चुप नहीं था
बस लोग नहीं बोलते
बिन मतलब के
नई सभ्यता की नई पहचान !!!
शहर उनका है
जो देते हैं
रोजी-रोटी
शहर अपनी चकाचौंध
उसी को देता है
रोजी-रोटी वालों को तो
धूल, रेत, गिट्टी सीमेंट
और छड़
के बीच का जीवन !!!!
सहसा विदा हो चले गए
बताया कुछ नहीं
लेकिन कमी अहसास करा गया
अब वो नहीं है
मेरे जीवन में
जो पास दूर महसूस होता था
जीवन में!!!!
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-राजकपूर राजपूत
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