आध्यात्मिक ज्ञान spiritual-knowledge

-आध्यात्मिक ज्ञान की जिज्ञासा-


 सबकी चाहत होती है कि वो दूसरों को जाने ।spiritual-knowledge-article-literature-life इसी प्रयास में वह संसार को टटोलने लगता है । अपने आसपास से लेकर नजदीकी रिश्तेदारों तक को । ताकि बेहतर संबंध और व्यवहार स्थापित किया जा सके । जितना हम जानते हैं उतनी ही सरलता और निश्चितता होती है । व्यवहारों में । जिसकी तलाश करते हैं। फिर भी समझ नहीं पाते हैं । या फिर वक्त लगता है । समझने में । क्योंकि उसकी कोशिश गलत दिशा में होती है । 

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आध्यात्मिक ज्ञान की शर्त-

जबकि हम पहले खुद को परखेंगे ।पूरी इमानदारी से । तटस्थ होकर । फिर आसपास के लोगों को । जो भावनाएं, बुद्धि और सोच हमारी है । वहीं हमारे आसपास के लोगों की है ।बस मात्रात्मक रूप में कम या ज्यादा है लेकिन भिन्न नहीं है तथा क्रियान्वयन और उसकी प्राप्ति के तरीके में अंतर है । जिसको जानना, समझना है तो पहले स्वयं को जानना जरूरी है । हम कैसे क्रिया, प्रतिक्रिया और उसकी प्राप्ति की कोशिश में लगे हैं । ठीक वैसे ही सामने वाले भी । बस कार्य करने के तरीके की समझ जिसे है । वह किसी कार्य को सरलता से करता है । जिसकी समझ कमजोर है । उसके लिए कठिन है । 

आध्यात्मिक ज्ञान की प्रवृत्ति

हमारे इंद्रियों की संवेदना, चाहत और घृणा के भाव का निर्माण करते हैं । जबकि ज्ञानेंद्रियां उसकी प्राप्ति और दूरी के तरीकों का अनुकरण करते हैं । जो सबमें हैं । अंतर सिर्फ यही है कि आपकी चाहत और नफ़रत किसमें है । जिसे भी है उस ओर बुद्धि की समझ बढ़ेगी । 

एक ही कार्यों को कई तरह से करते हैं । कोई सरल तरीकों से कठिन कार्यों को आसानी से कर लेते हैं । कोई सरल कार्यों को कठिन तरीकों से । जिसे देखकर या प्रेरणा लेने वालों के लिए दुष्कर कार्य है ,, समझना । 

लोगों की अपनी समझ-

चालाक लोग अपने तरीके दूसरों को बताने में कंजूसी करते हैं । क्योंकि उसका अपना मानना है कि वे जो कार्य करते हैं ।वह अंत्यत कठिन है । बस उसके पुरुषार्थ की बातें हैं । किसी अन्य की नहीं । जबकि सीधे सादे लोग अपनी उदारता की वजह से अन्य लोगों को स्थानांतरित कर देते हैं । अपने तरीकों को । जिससे सामने वाले व्यक्ति भी लाभ ले सकें । 

उपरोक्त कारणों से लोग एक दूसरे को समझने में चूक करते हैं । 

-राजकपूर राजपूत

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