समझदारी या बेवकूफी -कहा wise-or-stupid-of-this-time-story-meregeet-literary-life नी

 वे जब भी आते थे ।wise-or-stupid-of-this-time-story-meregeet-literary-life.  दुनिया भर की शिकायतें करते थे । कभी धर्म पर तो कभी किसी नेता पर । कितनी आसानी से कह देते थे । मानों वहीं सही है । बाकी दुनिया गलत है ।

उसकी आलोचना में आत्मविश्वास इतना था ,, जो मुझे मुर्ख जान पड़ता था । 

एक बार शुरू हो गया तो फिर बंद होने का नाम नहीं लेते थे । दूसरों से बातचीत के दौरान मुझे महसूस हुआ । वो खुद को बहुत बड़ा बुद्धिजीवी मानते हैं ।

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मेरा उससे जान पहचान ज्यादा दिनों की नहीं थी । बस काम की वजह से ही हुई थी । जो हफ्ते भर का था । उसका काम और मेरा काम अलग अलग था । लेकिन जुड़े इस तरह से कि एक साथ काम करना पड़ा । 

शुरू शुरू में तो वे मुझसे कम ही बातें करते थे । शायद ! घुले मिले नहीं थे । फिर भी बीच - बीच में मुझसे काम छोड़ कर बातें करने लगते थे । जान पहचान के लिए परिचय लिया और दिया । फिर धीरे धीरे मेरे साथ भी वही विद्वत्ता झाड़ने लगे । 

शुरू शुरू में मैंने कुछ नहीं कहा । सोचा थक जाएगा,, फिर चुप हो जाएगा । लेकिन मेरा मना न करना ,, बेवकूफ की श्रेणी में ला दिया मुझे,, उसकी नज़रों में ।

 

एक दिन तो हद ही हो गया । वे मेरी ही आस्था का मज़ाक मेरे ही सामने करने लगें । कई तर्क दिए । उसने कहा - " क्या मिलता है आप लोगों को । ऐसे जो चीज हैं ही नहीं उसको मानने से "। 

"आपको क्या मिलता है ऐसी बातों से,, अपना काम छोड़ के ये सब करते हो,, ये अच्छा है क्या ? " । मैंने तडाक से जवाब दिया । मुझमें गुस्सा था । 

कुछ पल सोचने लगा । पलट कर जवाब मिलने की उम्मीद नहीं थी उसे । क्योंकि मैंने अभी तक उसकी बातों को सुना था । कभी ज़वाब दिया नहीं था । कुछ देर चुप रहा । 

फिर कहा - "हम लोग वैज्ञानिक, और तर्कों को मानते हैं । रूढ़ि और दकियानूसी सोच को नहीं ।"

" अच्छी बात है । मानना भी चाहिए । जिस सोच से आपको संतोष मिलें । " मैंने कहा । मेरी उदासीनता देख उसे क्षेभ हुआ ।

""आपको अपनी आस्था से संतोष मिलता है'' । उसने व्यंग्य भरें लहजे में हल्की मुस्कान के साथ कहा । 

उसकी आलोचना मुझे नफ़रत भरी लगी । जिससे थकावट सा महसूस हुआ ।

"बिल्कुल ,,जब तक मेरी आस्था और जब तक आपका ज्ञान दूसरों को आवश्यकता नहीं है । तब तक नहीं देना चाहिए । व्यर्थ में । जिसकी जरूरत है उसे ही देना चाहिए । " मैंने पूरे विश्वास से कहा । जिससे उसे भी थकावट महसूस हुआ । एक दूसरे की आलोचनाओं को बखूबी समझ रहे थे । बातें करने की शैली व्यंग्यात्मक थी ।

"पता नहीं कैसे - कैसे लोग रहते हैं ,, इस दुनिया में । अपनी मुर्खता को भी सही समझते हैं । इससे बेहतर होता कि कुछ काम करते । जीवन सुधर जाते ।ऊघे हुए लोग । हां,,, लोकतंत्र में सबको अधिकार है । अपनी जिंदगी जीने का " ।

"आपको कैसी दुनिया चाहिए । एक तरफ सबकी भलाई की बातें करते हो और वहीं अपना विचार भी थोपते हो । हर किसी को तुम्हारे ही नजरिए से संतोष होना चाहिए ? तानाशाही सोच नहीं है । जो खुद से भिन्न है उससे नफ़रत । क्योंकि न सामने वाले भी आपसे ऐसी ही नफ़रत करें और अपना विचार थोपें । हो जाएंगी दुनिया बेहतर" !!

मेरी बात सुनकर वे बहुत कुछ कह सकते थे । लेकिन नहीं कहा । चुप हो गए और अपना काम करने लगे । 

दोनों एक दूसरे को स्वीकार नहीं कर रहे थे । हम दोनों का विचार अलग - अलग था । फिर भी काम के समय सहज बातें होती रहीं । मानों एक दूसरे को बुरा न लगा हो । 

फिर भी दिल के किसी कोने में एक नफ़रत बन गई थी । जो एक दूसरे को स्वीकार नहीं कर पा रहा था । वे हमेशा अपने मोबाइल के सोशल मीडिया पर विचार लिखते रहते थे । इससे उसको ताजगी मिलती थी । कई टोलियां थी,, उसके फोन पे । जहां से विचार लेते थे वो । प्रेरणास्रोत था । समान विचारधारा का समुह । 

अब मेरे सामने तो कुछ नहीं कहता था लेकिन पीठ पीछे बुराई ज़रूर करता था । यही सोचता कि मैं दकियानूसी हूं । जिसकी वजह से मुर्ख हूं । एक नफ़रत कहें या अहम जिसे वो अपने व्यवहार से ढकता था । जो आसानी से नहीं दिखता है !!!!!

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