Pyasi Akhiyan Ghazal
मेरे जनम जनम से प्यासी हैं ॲ॑खियाॅ॑
तेरी याद में जागी और सोती हैं ॲ॑खियाॅ॑
कितना मधुर कितना सुन्दर वो मुलाकात थी
दर्द है फिर क्यों सपने सजाती हैं ॲ॑खियाॅ॑
अंधेरों में मेरे प्यास भरें हैं प्यासे हैं ये नयन
तेरी झलक के खातिर सदा रोती है ॲ॑खियाॅ॑
बरसते हैं ये सावन मुझे तड़पाने के लिए
अब आ जाओ तेरी राह निहारती है ॲ॑खियाॅ॑ !!!
Pyasi Akhiyan Ghazal
जनम-जनम की प्यासी अखियां
तरसें और बरसी अखियां
वो बीच आज भी पड़े हैं जमी पर
अंकुरित हो मिले कोई प्रेम की अखियां
कभी बरसेगी कृपा बदरिया की
सोच-सोच बरसीं है अखियां
जिसे समझ न पाए वो ही भाएं
क्या देखी क्या पाएं अखियां !!!
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-----राजकपूर राजपूत "राज"
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