mirror and face articles इस तरह उलझे रहते हैं हमलोग कि कभी खुद को देखने के लिए फुर्सत ही नहीं निकाल पाते हैं।और नहीं कभी सोचते हैं(महात्माओं को छोड़कर)।जन्म से लेकर अपनी आखरी साॅ॑स तक व्यक्ति की दृष्टि बाह्य होती है।बाह्य प्रतिबिंब हमारे चेतन तत्व पर अंकित हो जाती है और उसे कभी भी महसूस कर सकते हैं।
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जब कभी उस अंतःकरण में अंकित प्रतिबिंब का मिलान किसी सादृश्य वस्तु या समान गुण से होता है तब हमारे चेतन तत्व बाह्य व आंतरिक प्रतिबिंब को एक साथ प्रगट कराते हैं। जिससे हम यह पक्का कर पाते हैं कि अमुक चीज़ उसके जैसा है।
दुनिया में यह बताने वाले बहुत मिल जाएंगे कि अमुक आदमी तुम्हारे जैसा है। तुम और वो एक जैसे हो। लेकिन खुद के जैसे हमें कभी नहीं मिल पाता है। मुझे लगता है कि कोई भी आदमी स्वयं के शक्ल सुरत से मिलती जुलती शाय़द ही कोई देखें हो। क्योंकि आईना कितने भी बार क्यों ना देख लो स्वयं की सूरत की कल्पना अन्य की अपेक्षा मुश्किल है। आईना में उभरे प्रतिबिंब हमारे चेतन तत्त्व में अंकित नहीं हो पाता है और होता भी है तो टूटा-बिखरा सा। उस समय भी हमारी दृष्टि बाह्य होती है।जिसका प्रतिबिंब अंतःकरण में अंकित नहीं हो पाता है।जो शायद कभी हो भी ना। फिर भी सजाते हैं। क्योंकि दुसरे को दिखाते हैं। ऐसे करने से सामने वाले व्यक्ति के अंतःकरण में हमारे रुप का प्रतिबिंब उसके अंतःकरण में पड़ जाए। सामने वाले हमारे चेहरे को सही आंकते हैं। लेकिन यह भी जरूरी नहीं कि सभी सही आंकते हैं। क्योंकि आईना हमेशा चेहरा उल्टा दिखातें है। आईना तो केवल हमारे तसल्ली के लिए है। दुनिया में प्रवेश करने के लिए। पुर्ण सत्य नहीं।
पराएं लोगों की चर्चा करके हम खुश हो जाते हैं । उनके आचरण और व्यवहारों को देखकर आंकलन कर लेते हैं । लेकिन अपना व्यवहार और आचरण का नहीं कर पाते हैं ।
जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक हमारी आंखें बाह्य होती है । दुनिया देखते हैं लेकिन स्वयं को नहीं देख पाते हैं न पाते हैं ।
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__ राजकपूर राजपूत "राज"
2 टिप्पणियाँ
Nice
जवाब देंहटाएंAdbhut
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