पिछले कुछ दशकों से समाज को निरंतर केवल अधिकारों के प्रति जागरूक किया गया है, जबकि कर्तव्यों की चर्चा लगभग गौण हो गई है। अधिकारों के प्रति चेतना फैलाने के लिए अनेक गोष्ठियों, सम्मेलनों और आंदोलनों का आयोजन किया गया, किंतु कर्तव्यों के पालन पर अपेक्षित बल नहीं दिया गया। वर्तमान समय में जिन भी सामाजिक संगठनों का निर्माण हुआ है, उनमें से अधिकांश का उद्देश्य अपने-अपने अधिकारों की रक्षा या हितों की प्राप्ति तक ही सीमित दिखाई देता है।
आज स्थिति यह है कि जितनी जातियाँ हैं, उतने ही संगठन बन गए हैं, और प्रायः प्रत्येक संगठन का मुख्य लक्ष्य अधिकारों की मांग करना बन गया है, न कि समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना। लोग अपनी जिम्मेदारियों से या तो अनभिज्ञ हैं, और यदि उन्हें जानते भी हैं, तो उन्हें स्वीकार करने या निभाने के लिए तैयार नहीं हैं। अधिकारों को सर्वोपरि मान लिया गया है और कई बार उनसे व्यक्तिगत लाभ निकाल लेना ही मुख्य उद्देश्य बन जाता है।
Right a Narrow Mind Set Article
कुछ सामाजिक संस्थाएँ भी अपने घोषित उद्देश्यों से भटककर केवल स्वार्थ सिद्धि का माध्यम बन जाती हैं। परिणामस्वरूप समाज में विखंडन, टकराव और असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो रही है। जब अधिकारों की मांग कर्तव्यों के बिना की जाती है, तो सामाजिक सौहार्द कमजोर पड़ता है और नैतिक मूल्यों का ह्रास होने लगता है।
जिसका परिणाम यह हुआ कि समाज में पुरुष को स्त्री से श्रेष्ठ सिद्ध करने की एक होड़-सी लग गई है। कहीं स्त्री के अधिकारों के नाम पर पुरुष को दोषी ठहराया जा रहा है, तो कहीं परिवारों में सास और बहु के संबंधों को जानबूझकर टकरावपूर्ण रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। सास के चरित्र को इस प्रकार गढ़ा जा रहा है मानो वह कभी बहु को स्वीकार ही नहीं कर सकती, जबकि वास्तविकता इससे कहीं अधिक जटिल और संतुलित है। यह सत्य है कि केवल सास ही नहीं, बल्कि कई बार बहुएँ भी अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करती हैं। किसी एक पक्ष को पूर्ण रूप से दोषी ठहराना सामाजिक रिश्तों को कमजोर करता है।
इसी प्रकार, शिक्षा को भी कई स्थानों पर इस ढंग से बढ़ावा दिया गया है कि अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे लोगों को कम बुद्धिमान या मूर्ख समझ लिया जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि समझदारी केवल डिग्रियों से नहीं आती। ज्ञान का वास्तविक स्वरूप तो अनुभव, उदारता, संवेदनशीलता और विनम्रता से विकसित होता है। कई बार कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी जीवन के व्यवहारिक पक्ष को अधिक गहराई से समझता है, जबकि अधिक शिक्षित व्यक्ति अहंकार और असहिष्णुता का शिकार हो जाता है।
समाज की यह प्रवृत्ति—चाहे वह लैंगिक श्रेष्ठता की हो या शिक्षा के आधार पर भेदभाव की—हमें आपसी सौहार्द से दूर ले जाती है। आवश्यकता इस बात की है कि हम तुलना और प्रतिस्पर्धा की बजाय समझ, समन्वय और कर्तव्यबोध को महत्व दें। तभी समाज में संतुलन, सम्मान और वास्तविक प्रगति संभव हो सकेगी।
इसी प्रकार कुछ विदेशी पंथों या विचारधाराओं द्वारा ईश्वर को मतांतरण की सीमाओं में बाँध देने का प्रयास किया गया है। उनके अनुसार ईश्वर तक पहुँच केवल उनके द्वारा निर्धारित नियमों, शर्तों और मान्यताओं के माध्यम से ही संभव है। अन्य विचारों, आस्थाओं और परंपराओं को चालाक बौद्धिक तर्कों के माध्यम से हीन या भ्रमित सिद्ध करने की कोशिश की जाती है। इस प्रक्रिया में ईश्वर को उनकी संकीर्ण नियमावली तक सीमित कर दिया जाता है, मानो वह स्वतंत्र और सर्वव्यापक सत्ता न होकर किसी व्यवस्था का बंधुआ सेवक हो।
ऐसी मान्यताओं में ईश्वर की असीम व्यापकता, करुणा और सार्वभौमिकता पर प्रश्नचिह्न लगने लगता है। जब ईश्वर को किसी एक विचारधारा, पुस्तक या संगठन तक सीमित कर दिया जाता है, तो उसकी सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी अवधारणा कमजोर पड़ जाती है। परिणामस्वरूप, आस्था का स्थान भय, संदेह और कट्टरता ले लेती है।
कई बार तो ईश्वर की तथाकथित रक्षा के नाम पर हथियार तक उठा लिए जाते हैं, मानो ईश्वर स्वयं अपनी रक्षा करने में असमर्थ हो। यह स्थिति अत्यंत विडंबनापूर्ण है, क्योंकि यदि ईश्वर सर्वशक्तिमान है, तो उसे मानवीय हिंसा या बल प्रयोग की आवश्यकता क्यों होगी? वास्तव में, ऐसी प्रवृत्तियाँ ईश्वर की महिमा को बढ़ाने के बजाय उसे सीमित और संकुचित बना देती हैं।
सच्ची आस्था वह है जो सहिष्णुता, स्वीकार और व्यापक दृष्टि को जन्म दे। ईश्वर किसी एक पंथ, भाषा या सीमा में नहीं बंधा होता, बल्कि वह मानवता, करुणा और सत्य के प्रत्येक स्वरूप में विद्यमान होता है। जब हम ईश्वर को सीमाओं में कैद करते हैं, तब हम वास्तव में ईश्वर को नहीं, बल्कि अपनी सोच को संकुचित कर रहे होते हैं।
ध्यान रहे ऐसे लोग कभी-भी विश्व कल्याण, विश्व शांति के लिए काम नहीं कर सकते हैं । इनका माइंड सेट होते हैं । अपने पंथों और मजहबी लोगों के प्रति ।
वास्तव में, एक स्वस्थ और सशक्त समाज के निर्माण के लिए अधिकार और कर्तव्य दोनों का संतुलन अत्यंत आवश्यक है। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने अधिकारों के साथ-साथ अपने कर्तव्यों का भी ईमानदारी से पालन करे, तो समाज स्वतः ही न्यायपूर्ण, संगठित और प्रगतिशील बन सकता है।
-राजकपूर राजपूत "राज "
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जो सहा न जाय
उसे कहा न जाय
भाई चारे की रीत है
बस अपने समूह में देखा न जाय
वो ज्ञान क्या है, जो बहलाए
अपनी बुराई देखा न जाय
गला काटने पर उतारू है
ऐसे लोगों को देखा न जाय
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