Village Daughter - Story Meregeet Sahitya jivan आशीष और तामेश्वरी एक खुशहाल दंपती थे। दोनों ने अपने छोटे से परिवार को बड़ी समझदारी और जिम्मेदारी से संभाला था। उनके घर में प्यार था, सम्मान था और एक अच्छी ज़िंदगी का सुकून भी।
घर के एक कोने में आशीष के बुज़ुर्ग माता-पिता रहते थे। उम्र ने उनके शरीर को कमज़ोर कर दिया था और अब उनके पास सिर्फ़ यादें बची थीं—बचपन की, संघर्ष की, और बेटे की परवरिश की। वे जानते थे कि अब उनका समय ज़्यादा नहीं है, और ज़िंदगी के इस अंतिम पड़ाव पर उनका सहारा बस बेटा और बहू ही हैं।
Village Daughter - Story Meregeet Sahitya jivan
परंतु वे कभी कोई शिकायत नहीं करते थे। न खाने को लेकर, न दवा को लेकर, और न ही बेटे के बदलते व्यवहार को लेकर, जो थोड़ा-बहुत उतार चढ़ाव से हो रहा था । क्योंकि वे यह समझते थे कि अब वे किसी की प्राथमिकता नहीं रहे, और यह समझदारी ही उन्हें चुप रहना सिखा चुकी थी।
हालांकि 
आशीष और तामेश्वरी ने भी उनके लिए अपनी ओर से कोई कमी नहीं रखी थी। दवाइयाँ आती रहीं, समय पर खाना मिलता रहा, और त्योहारों पर नए कपड़े भी। 
एक दिन तामेश्वरी के मायके से फ़ोन आया। उसकी माँ की आवाज़ में चिंता थी—"बेटी, थोड़े पैसों की ज़रूरत है। हालात ठीक नहीं हैं।"
तामेश्वरी का मन भीतर से हिल गया। वह जानती थी कि मायके में मां-बाप ज़रूरतमंद हैं, और उधर ससुराल में भी वृद्ध सास-ससुर पूरी तरह उन पर निर्भर हैं।घर के खर्च अधिक है । भविष्य की योजनाओं के लिए कुछ पैसे इकट्ठे कर रहे थे । इसलिए उसने आशीष से इस बारे में बात नहीं की। वह चुप रही—क्योंकि जब माता-पिता अपने समझ कर ही कुछ मांगते हैं , तो बेटी के लिए उन्हें मना करना सबसे कठिन होता है। लेकिन करें क्या?
उस दिन तामेश्वरी बहुत उदास थी। एक ओर वे माता-पिता थे, जिन्होंने उसे जन्म दिया, पाला-पोसा और अब बुढ़ापे में बेटी से सहारे की उम्मीद लगाए बैठे थे। दूसरी ओर उसका ससुराल था, जहाँ बुज़ुर्गों की सेवा और बढ़ते घर के ख़र्च उसकी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी बन चुके थे। कर्तव्यों के इस दोराहे पर खड़ी तामेश्वरी का मन जैसे किसी भारी बोझ तले दब गया था — न वह अपने मायके का दर्द अनदेखा कर सकती थी, न ससुराल का फ़र्ज़ निभाने से पीछे हट सकती थी।
रात को आशीष ने महसूस किया कि तामेश्वरी कुछ परेशान है। पूछने पर वह चुप रही लेकिन बार-बार के कहने पर वह फूट पड़ी—"मेरे मां-बाप ने आज पहली बार कुछ माँगा है… कैसे मना करूँ? मैंने अपने मां-बाप को अभी कुछ नहीं कहा । "
कुछ पल तक आशीष चुप बैठा रहा। कमरे में सन्नाटा था, बस घड़ी की टिक-टिक सुनाई दे रही थी। फिर धीमे स्वर में उसने कहा, “देखो, जैसे मेरे माँ-बाप हमारे भरोसे हैं, वैसे ही तुम्हारे भी हैं। चलो, उन्हें भी वही सम्मान दें, जो हमने यहाँ अपने बुज़ुर्गों को दिया है।”
इतना कहकर आशीष ने अपने हाथों से पैसे गिनने शुरू किए, हां उसके चेहरे पर एक अजीब-सी तसल्ली थी — जैसे किसी भारी बोझ को बाँट लेने से मन हल्का हो गया हो।
उस दिन तामेश्वरी की आँखों से आंसू तो बहे, लेकिन दिल को एक सुकून मिला। उसने महसूस किया कि जब रिश्तों में समझदारी और भावनाएँ साथ चलें, तो हर मुश्किल आसान हो सकती है। प्यार जहां होता है,, सम्मान स्वतः मिल जाता है । तामेश्वरी छोटी-सी बात को अपने भीतर कितना जटिल बना लिया था । यह सोच कर ही पछतावे से भर जाती थी ।
-राजकपूर राजपूत "राज "
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