बिना पते की चिट्ठी-भाग पांच Letter without Address - Part Five

 बिना पते की चिट्ठी-भाग पांच Letter without Address - Part Five लेकिन जोहन नहीं रुका। वह तो जैसे कुछ सुन ही नहीं रहा था। उसकी आँखें किसी और को खोज रही थीं। उसका मन किसी और पुकार की ओर खिंचा चला जा रहा था। वह धीमी और मन-ही-मन में लेकिन भावुक आवाज़ में बार-बार बस एक ही नाम दोहरा रहा था — "शालिनी... शालिनी..."


कमल ने एक गहरी साँस ली। वह समझ गया था कि इस पल जोहन की दुनिया में शालिनी के सिवा कुछ भी नहीं है — न दोस्ती, न वचन, न भावनाएँ। फिर भी, कमल का दिल आज भी उसके लिए धड़कता था — एक सच्चे दोस्त की तरह।

Letter without Address - Part Five

इधर जोहन, शालिनी का नाम लेते ही मानो स्मृतियों की कोई झरना-धारा फूट पड़ी। उसके ख्यालों में शालिनी की छवि एक बार फिर सजीव हो उठी। वह मन ही मन उसके साथ होने के सपने बुनने लगा—सपने, जो कभी मधुर स्मृतियों की मधुरिमा से भरे होते, तो कभी अनकहे भय की छाया से ढक जाते।

कभी उसे लगता, शालिनी का स्नेह सच्चा है; तो कभी संशय सिर उठाता—कहीं वह भी अन्य लोगों की तरह केवल समय तो नहीं व्यतीत कर रही है? इन विरोधी भावनाओं के जाल में जोहन का मन बार-बार उलझ जाता, जैसे कोई तितली अधखुले पंखों के साथ रोशनी और अँधेरे के बीच फँस गई हो।

शालिनी के साथ बिताए हुए दिन इतने सहज और मधुर थे कि समय कब पंख लगाकर उड़ गया, जोहन जान ही नहीं सका। देखते ही देखते कॉलेज का आखिरी दिन भी आ पहुँचा — और उसे यकीन ही नहीं हुआ कि यह सफर अब समाप्त होने को है।


कॉलेज की वो आख़िरी शाम...

सूरज ढलने वाला था, आकाश सुनहरी और गुलाबी छटा में डूबा था।

मैदान में वही पुराना बरगद था, वही बेंचें — लेकिन आज माहौल कुछ अलग था।

हर तरफ़ विदाई की उदासी थी —

किसी के हाथ में दोस्तों की ऑटोग्राफ बुक थी, तो कोई फोटो खींचते हुए आँखें पोंछ रहा था।


जोहन और शालिनी भी वहीं खड़े थे।

दोनों खामोश, लेकिन उनकी खामोशी में बहुत कुछ कहा जा रहा था।


जोहन ने धीरे से कहा,

“तो अब तुम अपने शहर लौट जाओगी?”


शालिनी ने धीमे से सिर हिलाया —

“हाँ... पापा कह रहे हैं, पोस्टग्रेजुएशन बाहर से करनी चाहिए। मैं दिल्ली जा रही हूँ।”


जोहन के चेहरे पर मुस्कान ठिठक गई।

“और मैं?” उसने थरथराती आवाज़ में पूछा, “कैसे गुज़ारूँगा तुम्हारे बिना ये दिन? काश... हम हमेशा के लिए साथ रह पाते।”


शालिनी ने उसकी ओर देखा, आँखों में हलकी नमी थी, पर शब्द अब भी संयमित थे —

“शायद हमारा साथ बस इतने ही दिनों के लिए लिखा था, जोहन। अगर किस्मत ने चाहा, तो फिर मिलेंगे।”


जोहन कुछ पल निःशब्द रहा।

सोचा — कितनी सहजता से कह गई वो! क्या उसे एहसास भी है कि इस एक वाक्य ने मेरे भीतर कैसी हलचल मचा दी है?

उसकी आँखें भीग उठीं, पर होठों पर अब भी एक फीकी मुस्कान थी — मानो वह जुदाई को भी प्रेम का हिस्सा मान रहा हो।

एक पल के लिए जोहन ने आसमान की ओर देखा —

कितना आसान होता है किसी को पास लाना,

और कितना मुश्किल होता है उसे अलविदा कहना।


“और तुम?” उसने पूछा।


जोहन मुस्कुराया, “मुझे तो घर संभालना है। शायद नौकरी भी शुरू कर दूँ... ज़िंदगी थोड़ी जल्दी बड़ी हो गई है।”


दोनों चुप रहे।

ठंडी हवा बालों को उड़ा रही थी।

बरगद के पत्ते धीरे-धीरे हिल रहे थे, जैसे कोई पुरानी धुन दोहरा रहे हों।


शालिनी ने अपने बैग से एक छोटा-सा डिब्बा निकाला —

“ये तुम्हारे लिए है,” उसने कहा।


जोहन ने खोला — अंदर एक पुराना नीला पेन था। वही पेन, जिससे वो सारे पत्र लिखे गए थे।


“ये तो वही...”


शालिनी मुस्कुराई,

“अब लिखने की बारी तुम्हारी है, जोहन।

कभी किसी दिन जब याद आए, तो इस पेन से चिट्ठी लिखना — चाहे भेजो या नहीं, बस लिख देना।”


जोहन कुछ कह नहीं सका।

वो बस देखता रहा — वो चेहरा जो उसकी हर सुबह का हिस्सा बन चुका था,

अब उसकी दूरी का सबब बनने जा रहा था।


विदाई का वक्त आया।

बस स्टैंड पर लोग अपने-अपने सामान के साथ खड़े थे।

शालिनी ने धीरे से कहा,

“शायद ज़िंदगी हमें फिर कभी मिलाए... और अगर नहीं भी मिलाए, तो याद रखना —

हर कहानी ख़त्म नहीं होती, कुछ बस रुक जाती हैं। मैं तुम्हारा इंतज़ार करूंगा । तुम घुमने के लिए आना हमारे शहर । ”


बस चल पड़ी।

जोहन वहीं खड़ा रह गया — हाथ में नीला पेन, आँखों में अधूरी मुस्कान और दिल में हजारों अनकहे शब्द।

बस स्टेशन पर हलचल थी — भीड़, शोर, सीटी, धुआँ — पर जोहन के भीतर सन्नाटा था।

शालिनी की बस धीरे-धीरे सरकने लगी। वह खिड़की के पास खड़ी थी — बाल हवा में उड़ रहे थे, आँखों में न जाने कितनी बातें ठहरी थीं, जो शब्दों में ढल नहीं पा रही थीं।


जोहन बस देखता रहा — न हाथ हिला पाया, न कुछ कह सका।

बस एक नज़र में जितनी यादें समा सकती थीं, उतनी उसने समेट लीं।


बस , स्टेशन से ओझल हुई तो लगा, जैसे उसके भीतर से कोई हिस्सा टूटकर चला गया हो।

वह देर तक वहीं खड़ा रहा, जहाँ कुछ देर पहले शालिनी थी — हवा में अब भी उसके परफ़्यूम की हल्की-सी गंध तैर रही थी।


धीरे-धीरे सब लौट गए, स्टेशन खाली हो गया।

जोहन ने गहरी साँस ली और मन ही मन कहा —

“शायद कुछ रिश्ते साथ नहीं रहते, बस याद बनकर जीते हैं। और यादें भी कम कहाँ होती हैं... वो तो सांसों में घुल जाती हैं।”


वह मुड़ा, आसमान की ओर देखा —

सूरज ढल रहा था, और उसके भीतर का उजाला भी।



---


कुछ दिनों बाद...


शालिनी की यादें फिर लौट आई थी।

कॉलेज अब याद बन चुका था, मगर जोहन का मन अब भी उसी बरगद के नीचे अटका था।

वह अक्सर अकेला वहाँ चला जाता,

कभी पत्तियों के बीच हवा से बातें करता,

तो कभी घास पर बैठकर उस पुरानी चिट्ठियों को खोलता।


एक दिन,उसे वहाँ एक नया लिफ़ाफ़ा मिला —

वही नीला रंग, वही खुशबू।


काँपते हाथों से उसने खोला —


“प्रिय जोहन,

जब मैं यहाँ नहीं होती, तो भी तुम्हारे पास हूँ — हर हवा की खुशबू में, हर याद की नमी में।

हमारी कहानी अधूरी नहीं है... बस अभी उसका अगला पन्ना बाकी है।

— तुम्हारी, शालिनी।”



जोहान मुस्कुराया —

“शायद... कुछ कहानियाँ वक़्त के साथ भी खत्म नहीं होतीं।”


उसकी आँखों में खुशी की चमक छलक उठी।

दिल ने धीरे से कहा,

शालिनी शायद अब भी मेरा इंतजार कर रही है।

और वह तय कर चुका था —

वह जाएगा, उससे मिलने।


बूंदें उसकी यादों में भीगती रहीं,

और पेन की स्याही कागज़ पर एक नई कहानी उकेरने लगी।


अब ये चिट्ठियाँ किसी और के लिए नहीं थीं —

वे उसकी आत्मा से बसी एक नर्म सी बातचीत थीं,

जो सिर्फ शालिनी के नाम थी।

क्रमशः 

-राजकपूर राजपूत "राज "

इन्हें भी पढ़ें बिना पते की चिट्ठी-भाग चार 

                  गांव की बेटी -कहानी 

Reactions

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ