Story - Death of Our Own and Others हमारी शादी पांच साल से अधिक हो गई थी । मेरे जीवन साथी के रूप में मेरी पत्नी (स्वाति)हर फैसले में साथ रही । कभी भी हम दोनों के विचार में असहमति नहीं आई । हमने हर फैसले मिल कर लिए । ऐसा मुझे लगता था क्योंकि हम दोनों में कभी भी लड़ाई नहीं हुई । हमारे दो बच्चे हैं । एक लड़की और लड़का ।
हां मैंने कभी भी उसकी परीक्षा लेने या परखने की कोशिश नहीं की ।मुझे इसकी जरूरत भी नहीं पड़ी । सिर्फ प्यार दिया । उसने मेरे हर फैसले में हां, सिर्फ हां कहा । समस्याओं को स्वयं सामने आकर सुलझाया । भगवान ने ऐसी चुनौती दी ही नहीं कि मुश्किल हो जाय ।
Story - Death of Our Own and Others
भाइयों की दगाबाजी की वजह से मेरे हिस्से में जमीन जायदाद कम आए । मेरा ही नुकसान हुआ । फिर भी मुझे बुरा ना लगा । बटवारे के समय पिता ने कुछ नहीं कहा । इस बात का मलाल जरूर था ।
और कहें भी कैसे उसके बेटों ने कुछ भी नहीं सुना था । बोलने की कोशिश किया तो मारने पीटने के लिए उतावले हो रहे थे । मैंने विरोध किया कि मेरे हिस्से में जमीन कम आया है । ये बंटवारा ठीक नहीं है । बस्ती से चार लोगों को बुला लाते हैं । जो भी फैसला करें । मुझे मान्य होगा ।तुम लोग अपनी मनमर्जी चला रहे हो । मगर एक नहीं सुनी । उलटे मुझे समझाने लगे । घर की बातें बस्ती को सुनाओगे । ऐसे पढ़े - लिखे हो ।
और जैसे कुछ पढ़े-लिखे आदमी अपनी समझदारी से मर जाते हैं । नैतिकता का दबाव महसूस होने लगता है । वैसे ही ठीक मुझे भी हुआ , कुछ इसी तरह से ।
उस दिन जाना,,चालाक आजकल सभी हो गए हैं । मेरे भाइयों ने भी गुटबंदी कर रखी थी। चारों भाई एक होकर बोलें । एक राय से । मैं लड़ नहीं सका । क्योंकि उनका समूह सियासी पंथों की तरह था । वो कहे तो सब सही । वर्ना नहीं, नहीं । समझदारी उनके अनुसार स्थापित किया जाना चाहिए । उसके सुविधानुसार से । तब ठीक था । वर्ना पढ़े-लिखे गवार ।
लेकिन जब बाप को साथ रखने की बारी आई तो सभी भाइयों ने हाथ उठा लिए । ये सोचकर अब बुढ़ापे में उसकी सेवा बस करनी पड़ेगी । मैंने भी कुछ नहीं कहा । जब मेरा नुकसान हुआ है तो बोले क्यों नहीं !
बाप मुंह ताकते रह गए। 75-76 की उम्र में कहते भी किसे ?
किसी ने उसके बारे में चर्चा तक नहीं की । मां की मृत्यु के बाद से अकेले हो गए थे । एक बेटी ससुराल चली गई है । अब पांच बेटों के बीच में , अपना सहारा ढूंढ रहे थे ।
बुजुर्ग पिता मेरे भरोसे आ गए । क्योंकि मैं पढ़ा-लिखा था । अपने भाइयों से ज्यादा । मेरे पास नौकरी थी । राइस मिल में । पन्द्रह हजार महीना मिल जाते थे । इसलिए मेरे भाइयों को जलन होती थीं । उनकी सोच भी यही थी । बुढ़ापे में रखेंगे तो मैं आगे नहीं बढ़ पाऊंगा । शैतानी दिमाग,,मेरा नुकसान ही सोचेगा ।
जबकि मेरे भाइयों के पास खेती किसानी के काम थे । ज्यादा समय घर पर ही रहते ।
मेरी पत्नी उस समय भी कुछ नहीं बोली । सब-कुछ चुपचाप स्वीकार कर ली । उसने मुझे इतना बस कहा कि तुम्हारे भाई हैं,, तुम ही निपटो । लेकिन मेरे भाइयों की पत्नियां चालाकियां करती थीं । जमीन और खेती के हिस्सों में वही लोग निशान लगाए थे । अपना-अपना हक़ मान कर । मैंने भी अपनी पत्नी से कहा " मैं थक रहा हूं । इन लोगों से । तुम भी सामने आकर , जवाब दिया करों । "
उसने कहा "मैंने जीवन में कभी किसी से लड़ाई नहीं की है । तो यहां कर पाऊंगी । तुम ही देखो । "
इस तरह के जवाब से मैं चुप हो गया था । दुःख भी लगा ।जरूरत पड़ी है फिर भी साथ नहीं दे रही है । खैर इस बारे में ज्यादा नहीं सोच पाया । मुझे आने वाले भविष्य की चिंता थी ।
इधर परिवार से अलग क्या हुआ , मेरी परेशानी बढ़ गई । नौकरी के साथ-साथ मुझे खेती बाड़ी भी देखना पड़ता था । जिसमें मैं अभ्यस्त नहीं था । लेकिन कुछ दिनों में अपनी नौकरी और खेती-बाड़ी को व्यवस्थित कर लिया । दिन गुजरने लगे । बाप का वृद्धा पेंशन उन्हीं के पास छोड़ देता था । बुर्जुग आदमी कभी हमारा मुंह न देखें । वैसे पिताजी हमेशा देने का प्रयास किए । कहते थे मैं क्या करूंगा । मेरा इलाज और दवा पानी तुम्हें ही तो करना है । लेकिन मैंने इंकार कर दिया । समय-समय पर हमारी बहन या अन्य रिश्तेदार मिलने आएंगे तो उन्हें भी व्यवहार निभाने होंगे । दो-चार पैसे देकर अपनत्व दिखा सकें । हाथ बंधे रहने पर लाचार दिखेंगे । लोग आखिर मुझे ही दोष देंगे । जो मैं नहीं चाहता था ।
पिताजी भी जानते थे कि वे मजबूरी और जबरदस्ती में मेरे साथ आ गए हैं । इसलिए मुझे खुश कर रहा था ।
सभी बेटों की उदासीनता उसे खल गये थे । खासकर बड़े बेटे की । क्योंकि उसका झुकाव उसी ओर था । मगर पिताजी ने कभी अपने बेटे और बेटी में अंतर नहीं किये । सभी को बराबर का दर्जा दिया था । फिर भी इतनी नफ़रत कैसी ? या तो जमाना बदल गया या वो बेटों के अनुसार खुद को ढाल न सके । कुछ समझ नहीं पाएं । आजादी सबको दी ।मगर सभी अपने-अपने रास्ते निकल गए । बाप को छोड़कर ।
इसी डर में कहीं मैं भी बदल न जाऊं ।डर की भावना से मेरा मुंह ताकते थे । वृद्धा पेंशन का पैसा मुझे देने की कोशिश कर रहे थे । हालांकि पैसे मात्र पांच सौ रुपए थे । महीने में ।
उसकी लाचारी मैं समझ रहा था । लेकिन मैंने मन-ही-मन सोच लिया था । अपने पिता को लाचारी का जीवन नहीं दुंगा । क्योंकि मैं भी उसी उम्र में जाऊंगा । वो मेरी उम्र जी कर तो आए हैं । बुढ़ापे में तरसाना गलत उदाहरण होगा । खासकर मेरे बच्चों के सामने । मुझे देख कर ही तो सिखेंगे ।
मेरे हिस्से मिट्टी का मकान आया । भाइयों ने पक्का मकान अपने पास रखें । इसलिए उन लोगों को घर बनाने की जरूरत नहीं पड़ीं । लेकिन मुझे थी ।
पिताजी भी कहते थे । मुझे पक्की छत के नीचे कब सोने का मौका मिलेगा । मिट्टी के मकान बरसात में बहुत चूते हैं । जिससे सोने और रहने में दिक्कत होती है । जगह-जगह पर चूहों ने बिल बना दिया है । जिससे सांप का डर बना रहता है । न जाने कब निकल आए और डस दें ।
पिताजी सबके मकानों को देखते तब ऐसे सोचते थे । खासकर बरसात के दिनों में । मुझे और मेरे परिवार को अपना मानते थे । जब से आया है भाइयों का नाम नहीं लिया है । जैसे उनसे रिश्ता टूट गया हो । इस बात का भाइयों को जरा सा भी नहीं अखरता था । अपने परिवार में व्यस्त रहते थे । ध्यान देते तो सिर्फ मेरी ओर । वो भी जलन में ।
धीरे-धीरे बचत करके और कुछ कर्ज़ लेकर घर बनाना शुरू कर दिया । चुंकि मेरे पास एक ही कच्चा मकान और बरामदा था । कमरे में हम लोग और बरामदे में पिताजी सोते थे ।
गर्मी के दिन आ चुका था । बरसात से पहले घर बनाना जरूरी था ।
इसलिए हम लोग एक झुग्गी झोपड़ी बना लिए । जिसे पन्नी से ढक दिए । जहां बहुत गर्मी रहती थी । वहीं पर रहना था । रात में बाहर सो जाते ।
हम लोग दिनभर काम में व्यस्त हो जाते थे लेकिन पिताजी के लिए उस झुग्गी में दिन काटना बड़ी मुश्किल था । इसलिए काम की जगह बैठ जाते थे । हम लोग मना करते थे । कहीं कुछ गिर जाएगा तो चोट लग सकती है । फिर भी नहीं मानते थे । ज्यादा समान का नुक़सान होने पर बड़बड़ाने लगते थे ।
उस समय मेरी पत्नी जवाब दें जाती थी ।
"तुम्हें क्या है ? चुपचाप खाओ पीओ और पड़े रहो । दिनभर बड़बड़ाने से क्या मिलेगा ।"
इतना सुनकर वो चुप हो जाते थे । लेकिन मैं समझ रहा था । मेरे पिताजी में बचत की भावना थी।मेरा नुकसान होते नहीं देख पाते थे । जबकि मेरी पत्नी काम से थक जाती थी । जिसके कारण कहती थी । मैंने कई बार कहा कि ऐसे नहीं कहा करते हैं । शब्दों की शैली में थोड़ा सुधार करों । वो चुप हो जाती थी ।
पिताजी के पास कुछ काम तो नहीं थे । न ही हमने उसे कुछ करने के लिए बोलें । इसलिए कभी घर बनते देखते या फिर दुकान के पास चले जाते ।
अचानक एक दिन दुकान के पास गिर गए । दुकानदार ने उसे उठाकर लाया । बताया कि चक्कर आ गया था । घर में रहने के लिए कहा करों ।
इतना सुनकर स्वाति बोली - " कई बार कह चुके हैं लेकिन मानते ही नहीं है । "
दुकानदार कुछ नहीं बोला और चले गए । वो समझ गया था कि अब चिल्लम चिल्ली होगी । लेकिन ऐसा नहीं था । थोड़ी देर में सब शांत हो गया था ।
मैंने चुपचाप गांव के डॉक्टर को बुला लाया । मैं किसी तरह से तनाव लेना नहीं चाहता था । घर जो बना रहा था । डॉक्टर साहब आए और सुई गोली दे कर बोले - " ज्यादा धूप में रहने मत दिया करो । "
"लेकिन पिताजी जी दिनभर धूप में ही रहते हैं ! "मैंने कहा ।
"ठीक है, अब मना किया करो "
मैंने कुछ नहीं कहा । सोचने लगा । झुग्गी में गर्मी बहुत है । कहां भेजे ? घर जल्दी से बन जाता तो ऐसी समस्या नहीं आती । धीरे-धीरे आखिर घर का काम चौखट लेवल तक आ पहुंचा । कुछ खुशी हुई । कम-से-कम अब हफ्ते भर का और काम बच गया है ।
चार कमरे थे, छोट-छोटे । इतना ही था मेरा बजट । फिर भी उधार करना पड़ा । बचत ज्यादा होती नहीं है । फिर परिवार भी चलाना है । घर का काम चल रहा था कि एक दिन पिताजी फिर से गिर गए । सब डर गए ।
जल्दी-जल्दी से उठाकर झुग्गी में लाए । डॉक्टर को बुलाया गया । जो दवाई दी । फिर से समझाया कि धूप ज्यादा है । बाहर निकलते हैं तो मना किया करो । स्वाति फिर बड़बड़ाईं । लेकिन पिताजी कुछ नहीं बोले । क्योंकि वो जानता था कि अगर स्वाति को कुछ बोलुंगा तो मेरा बेटा बुरा मान जाएगा । जो उसके लिए कठिनाई पैदा कर देगी । इसलिए पिताजी ने कभी पलटकर जवाब नहीं दिए ।
लेकिन मैं क्या करता । पिताजी को मना करके भी । घर तो बना ही नहीं था ।
जैसे-तैसे घर बन गया मगर पिताजी का स्वास्थ्य और खराब हो गया । इतना कि जो चल फिर रहे थे । वह लाठी का सहारा ले कर चल रहा था । उसके स्वास्थ्य की चिंता मुझे होने लगी । अभी से कुछ मत हो । कम-से-कम मेरे साथ आ गए हैं तो कुछ सुख भोग लें ।मेरी जमीन जायदाद के साथ ,,,सभी तो उसके हैं । मेरी खुशियों में शामिल रहे ।
मैंने हमेशा पिताजी को जीवन भर काम करते देखा । एक-एक पैसा इकट्ठा करते देखा । खेती करते हुए धन-दौलत इकट्ठे किए थे । मगर सब धन दौलत अब उसके लिए बेकार हो गया था । जो जीवन जिया है उसी जीवन में मुझे देखना चाहते थे ।
मगर मेरी पत्नी नहीं समझ पाती थी । समझाने की कोशिश की लेकिन उसने अनसुना कर दिया जबकि पिता की आँखें समझती हैं, अपने आँगन का सूनापन,,, निहारती हैं - हर चेहरे पर दर्द भरे मन -दरवाजे की चौखट से - आते हुए कदमों को- आने वाले कल को,, बुढ़ापे के उपेक्षा का दर्द,,,पहचानती है । इसलिए सदा आंखें डबडबाई हुई रहती थीं । जैसे अकेला है ।
मेरे परिवार में सिर्फ पिताजी थे । जिसे मेरी फ़िक्र थी । मेरे सुख दुःख में शामिल होना चाहते थे । एक हिस्से के रूप में साथ रहना चाहते थे ।
साथ रहने की चाह बड़े बेटे की थी । मगर उसने पुछा नहीं । कारणवश मेरे साथ आ गए । भाइयों ने तो दुश्मनों जैसा व्यवहार किया ।
मेरा हित देखना उन लोगों को चुभता था । मैं जानता था कि उनके के अंदर कितनी जलन है । मेरा घर बनते देख । कमियां निकालने लगे । दूसरों के सामने कहते फिर रहे थे । पढ़ा-लिखा है । पैसा दबा कर रख लिया था । दो साल बाद निकाल दिया । सबको भोगना पड़ता है । हमारे हक़ मारकर बना रहा है । उन लोगों के कई तरह की बातें । लेकिन मैंने ध्यान नहीं दिया । उन लोगों ने तो मेरा ही गला काटा था । भले ही दूसरों के सामने मेरी बुराई करें ।
ध्यान दिया तो पिता जी का । क्योंकि मेरी खेती-बाड़ी से लेकर मेरी नौकरी के वेतन की चिंता थी । फसलें हुईं की नहीं । वेतन बढ़ा कि नहीं । इतना ख्याल रखना मुझे याद दिलाता था । मैं अभी बच्चा हूं । उसके लिए । मेरे भविष्य की चिंता है । अब मेरे पास आ गए हैं तो मेरे हो गए ।
मेरे दो बच्चों को न देख कर चिंता करने लगते थे । अभी तक स्कूल से कैसे नहीं आए हैं ! जब गांव का बाजार जाते थे कुछ न कुछ खाने की चीजें जरूर लाते । जब तक मेरे बच्चों को नहीं खिला लेते थे तब तक खुद नहीं खाते थे । बहुत प्यार था ।
मैं कितना आश्वस्त हो जाता था । जब मैं कोई गांव चला जाता था । निश्चित होकर रूक जाता था । मेरे पिताजी हैं । मेरे बच्चों की चिंता करने के लिए । अभी चहल-पहल कर लेते हैं । कम-से-कम लाठी के सहारे । अपने पोते और पोती को नहीं देखते थे तो गली में निकल कर आवाज़ दे कर बुला लाते हैं ।
उसके स्वास्थ्य ठीक रहे, इसके लिए मैंने कई दवाईयों को घर में रख लिया था । आयरन, कैल्शियम, और बी कॉम्प्लेक्स विटामिन्स की गोलियां हमेशा घर में रखता था । जरुरी पोषक तत्व मिलते रहे । डॉक्टर की सलाह से गोलियां बदल देता था । कभी-कभी मेरे पिताजी मुझ पर खीझ जाते थे । गोली दवाई खिलाकर मारेगा मुझे । मैं ठीक हूं । इन सब की जरूरत नहीं है मुझे । उसकी जीने की इच्छा मरती जा रही थी । एक दर्द उठता था। बेटों का । जो पास होकर दूर है ।
लेकिन मैं मानता था कि अधिक उम्र में खाना ठीक से नहीं खिलाते हैं । इसलिए गोलियों और केप्सूल के माध्यम से पूर्ति होगी ।
मुझे डर था कि कहीं लकवा न हो जाए । कोई अंग शून्य हो गया तो मेरी परेशानी बढ़ जाएगी । उठा कर शौच आदि के लिए ले जाना पड़ेगा । मैं अकेला आदमी । यही सोच बार-बार परेशान कर रहा था । कुछ दिन और गुज़रे पिता जी की स्थिति सुधार होने के बजाय , और खराब हो चुकी थी । जिसे सुनकर रिश्तेदार भी आने लगे ।
मामा जी तो हर हफ्ते आ जाते थे । उन्हें देखकर पिताजी रो पड़ते । जैसे अब वह ज्यादा दिनों का मेहमान नहीं है । अब मुझे चले जाना चाहिए और कितना दिन मुझे भोगना पड़ेगा । अक्सर उनके सामने यही चर्चा होती थी ।
जिस दिन भगवान का बुलावा आएगा, उसी दिन । तब तक सबको भोगना है यहां । मामा जी कहते थे ।
उसे मरने से ज्यादा दुःख अपने बेटों से था । उससे मिलने दूर के रिश्ते भी आ रहे थे । लेकिन घर के बेटे उसे देखने भी नहीं आए हैं । जीते जी अपनो के लिए मर गया । अब जी कर भी क्या करूं ? करूण वेदना का स्वर भीतर से फूटता तो आंखें नम हो जाती थी ।
देखने वाले उसे शारीरिक पीड़ा मानते थे । लेकिन मुझे उसकी पीड़ा स्पर्श होता था । लेकिन मैं सांत्वना भी नहीं दे सकता था । डर था कि उसकी पीड़ा और बढ़ जाएगी ।
मेहमान जब आते तो उनकी दयनीय स्थिति पर तरस खाते थे । बुजुर्ग होने पर सबका यही स्थिति होती है । अब लें जाना चाहिए भगवान, इसको । सुनकर मेरे अंदर करूण रुदन आ जाता था । नहीं अभी ठीक हो सकता है । कुछ लोग तो सौ बरस जीते हैं । अभी उम्र क्या हुआ है ?
जो लोग मेरे पिताजी की उम्र के थे । अक्सर आकर रोने लगते थे । तब मुझे लगता था । अब मेरे पिताजी शायद ज्यादा समय तक साथ नहीं रहेंगे । उनके दोस्तों का रोना , उन्हें डरा रहे थे और मुझे भी । दोस्त सोचते या मानते थे कि उसके हालत कुछ दिन बाद वैसे ही होगा । अपने अंतिम समय की छाया मेरे पिताजी की स्थिति से अनुमान लगा लेते थे ।
कुछ मेहमान और पिताजी के दोस्त हमेशा नकारात्मक रहे । उनकी बातों मुझे तोड़ देती थी । मैं नहीं चाहता था कि वो फिर से मेरे घर आए । ऐसी-वैसी बातें करके जाएं । पिता को रूला कर कमजोर करें ।
पिताजी कई बार पेशाब नहीं रोक पाते थे । खासकर शौचा जाते समय, रास्ते में कर देते थे ।
"रोकने की कोशिश करता हूं मगर रोक नहीं पाता हूं" ।"
किसी बच्चे की तरह कहते । ऐसा लगता था - वो अब बच्चा बन गया है । उसे विश्वास चाहिए था मेरा । यही कि मैं बुरा तो नहीं माना हूं । मैंने व्यवहार में परिवर्तन नहीं किया ।
"हो जाता है सबसे ,, तबीयत खराब है इसलिए । सभी के साथ हो सकता है " । वो आश्वस्त हो जाते थे । कुछ समय बाद भूल भी जाते ।
मानसिक परिवर्तन उम्र और बीमारी खास अंतर नहीं ला पाया । अब भी समझदारी दिखा रहे थे । पकड़ बनाने की कोशिश करते थे । अपने शरीर पर । लेकिन कुछ कर नहीं पाते थे ।
उनके कमरे से धीरे-धीरे बदबू आने लगी । अजीब सी गंध । बार-बार पेशाब की कुछ बूंदें धोती सूखने नहीं देती थी । बिस्तर भी गीला हो जाता था ।
जब मैं घर पर रहता था तो आंगन में कई बार ऐसे ही घुमा देता था । ताकि हलचल बना रहे । दिन और रात में कपड़े बदलना पड़ता था । घंटे भर धूप,, उसके बाद फिर अंदर बाहर ।शौच तो रूटीन में रखा । सुबह और शाम । बिना कहे । सहरा देकर ले जाता था । बाद में स्वाति को कोई परेशानी न हो ।
स्वाति पिता के कमरे में जाने से कतराती थी । नाक-मुंह सिकोड़ लेती थी । जो मुझे अच्छा नहीं लगता था । कई बार कह चुका था कि हम भी एक दिन इसी उम्र में आएंगे । जितने दिन जिंदा है । सेवा कर देते । लेकिन नहीं मानी । कई बार चिल्ला देती थी । जबकि पिताजी का कई इन्द्रिय का काम नहीं कर रही थी । जैसे सुनने की क्षमता कम हो गई थी । यदि सुनते तो जवाब देते । कभी-कभी चिल्लाने पर मुस्कुरा देते थे । स्वाति थक जाती थी ।
आखिर मुझसे रहा नहीं गया । " इस तरह चिल्लाने और मुंह बनाने से कुछ नहीं मिलेगा । नहीं करनी है सेवा तो मत करों । मुंह बनाकर कमरे में जाने से अच्छा है । घर के बाकी कामों को करों । मेरे पिता है । मैं कर दुंगा ।
"क्योंकि तुम तो करने वाली नहीं हो । "
मेरे चिल्लाने से वो चुप हो गई मगर फिर बहाना बनाकर बोलने लगी
" पुरुष है । उसके कमरे में भला मैं कैसे जा सकती हूं । कुछ भी होश में नहीं रहता है । कपड़े का कोई ठिकाना नहीं । मेरा जाना आपको अच्छा लगेगा । "
"ठीक है मत जाओ मगर यूं मुंह ऐंठ कर मत रहा करो । दिनभर पिता की चिंता लगी रहती है । कहीं भी जाऊं । ऐसे में घर का माहौल तो तुम्हारे मुंह फुलाने से खराब लगता है । कमरे की सफाई मैं खुद कर दुंगा । काम में जाता हूं तो कम-से-कम पिता की हरकतों को तो फोन से बता सकती हो । "
वो चुप रही । कुछ न बोली । मैं चुपचाप पिता के कमरे की सफाई की और फिनायल को छिड़क दिया । कमरे की बदबू चली गई । यह रोज की मेरी आदत में शामिल था ।
हमारी बातों को हमारे बच्चे सुन रहे थे । जैसे उनके भीतर विचार चल रहा हो । क्या करना है ! उस दिन से हुआ यूं कि मेरे बच्चे अपने दादा को सहारा देकर मेरी अनुपस्थिति में कमरे के बाहर कुर्सी पर बैठा देते थे ।सोने का मन करता तो कमरे में बिस्तर लगाकर लिटा भी देते थे । मुझे हर पल की ख़बर फ़ोन से सुचना देने लगे । मैं कहीं भी रहूं पिताजी की हालचाल पता चल जाता था । जैसे पिता के उठने बैठने की बातें ।
मैं कुछ हद तक आश्वस्त हो जाता था । तो डर भी जाता था । घर से फोन आने पर , न जाने फिर क्या हुआ है !
हलो ! कहते ही अपने बच्चे की आवाज से राहत मिलती थी । दादा जी , आज खाना खा कर सो गए हैं । उठकर चलने की कोशिश की तो मना किए और मान गए ।
इतना सुनकर फोन रखने के लिए कहता, मैं अभी काम पर हूं । मन तो काम पर लग जाता था लेकिन ध्यान घर की ओर चला जाता था ।
धीरे-धीरे पिता की स्थिति और दयनीय होने लगी । इन्द्रियों पर पकड़ बुद्धि की नहीं थी । न मन, न विचार पर काबू था । कुछ भी बोल देते थे, कुछ भी कर देते थे ।
पिता के स्वास्थ्य के खराब होने के बाद से मैं कमरे से सटे बरामदे में सोता था, ताकि रात में उनकी हलचल पर मेरी नजर बनी रहे।
रात के एक बजे थे । अचानक मेरी नींद खुली । ऐसा लगा पिताजी कुछ कर रहे हैं । पूरी बस्ती सो चुकी थीं । कुत्तों के भोंकने की आवाजें आ रही थीं । उनके कमरे में जाकर देखा तो पिताजी गायब थे । मैं डर गया । कहां गए ? सभी कमरों को देखा, कहीं पर नहीं थे ।
मेरी पत्नी और बच्चे सो रहे थे । शौचालय का दरवाजा खोला, वहां पर भी नहीं थे । आखिर कहां चले गए । इतनी रात में । गली का दरवाजा बंद था । बाहर गली में में तो नहीं गए हैं । छत पर चढ़ नहीं सकते थे, फिर गए , कहां ? वहां भी नहीं था । मेरा मन रोना चाह रहा था । आवाज़ दूं, पिता जी को ।
तभी मेरी नज़र घर के लिए लाए हुए जलाऊं लकड़ियों पर गई । साल भर के लिए लकड़ियां इकट्ठा करते हैं । खाना बनाने के लिए । जिसके ढेर के पीछे बैठा था । जिसे देखते ही हृदय करूणा से भर गया । हे भगवान ! ये क्या हो रहा है । ऐसा मत कर ।
"पिताजी ! क्या कर रहे हो !" मैंने करूण स्वर में कहा ।
"गांव आया हूं ।अपनी बेटी के यहां ।"
उसने हंसते हुए जवाब दिया । अपने झोले को पास लाया । अपने नए - पुराने कपड़ों को भर रखे थे ।
"कल घर जाऊंगा ! "उसने कहा ।
"कहां का घर " मैंने कहा ।
"अपने बेटे के यहां । कुलदीप । दिनभर मेरी फ़िक्र करता है । अभी काम पर गया होगा ।"
मेरा नाम लिया लेकिन मुझे पहचान नहीं सका ।
मैं समझ गया । उसका सुध-बुध कहां चला गया है । मेरी आंखें भर आईं ।
"चल अब खाना खा लें । आपकी बेटी खाना निकाल चुकी है ।" बिना डांट फटकार कर कहा । जैसे सचमुच बेटी के घर में है ।
"बन गया खाना । "
"हां । "
और वो उठ गए । मैंने हाथ पकड़ कर कमरे में ले आया । घर में बने चांवल लाकर खिला दिया । खाना खाकर पिता जी ने कहा -
" चल अब बस आ गई होगी । मुझे घर जाना है ।"
"नहीं, अभी बस आने में समय है । तब तक आराम करों । " बहलाते हुए कहा ।
पिताजी ने मेरी बात मानीं और सो गया ।
मैं रातभर सोचता रह गया । क्या यही अंतिम जिंदगी का पल है । कितना दर्दनाक है ! कितना कष्टप्रद ! फिर सोचता । पिता की कई इन्द्रियां मर चुकी है ।उसे कहां अहसास होता होगा । जैसे उसके कान अब शब्द नहीं समझ पाते हैं । जीभ स्वाद महसूस नहीं कर पाती है । जो मुझे महसूस हो रहा है, उसे नहीं । कोई प्यार दें या गाली कोई फर्क नहीं पड़ेगा । शरीर टूट चुका है । प्राण शेष है । जब तक न निकल जाए । तब-तक इंतजार । सोचते-सोचते मेरी आंख लग गई ।
जब सुबह काम पर जा रहा था तो अपने पिता जी को देख रहा था । कितना बेबस हो जाता है आदमी । प्रेम मिल गया तो ठीक वर्ना अकेला है आदमी । बड़े बेटे के साथ रहता तो शायद ! कुछ दिन और सही से रहते । हालांकि की मेरी हर बात मानता है । फिर भी जिससे प्रेम होता है । उसके साथ ही हृदय खुश होता है । उम्र भी बढ़ती है । जीने की चाह भी ।
मेरे पिताजी सब समझते थे , इस बात को मानते थे कि मैंने कभी उसे अलग नहीं समझा । पिता है, पिता का हक़ दिया । तभी तो मेरे बच्चे को इतना प्यार करते हैं । मेरे भाइयों को ऐसा नहीं करना था । उनके भी बच्चे हैं । भोगेंगे एक दिन ।
जब मैं काम से लौटकर वापस आया, तो पिता जी का कमरा साफ-सुथरा पाया। फिनायल की वजह से बदबू नहीं आ रही थी। कमरा व्यवस्थित था। मन-ही-मन सोचने लगा कि आखिर ऐसा कैसे हो गया! स्वाति बरामदे में बैठी थी। आज उसका चेहरा अच्छा लग रहा था। मैंने उसे कुछ नहीं कहा। बस, हाथ-पैर धोकर चाय बनाने के लिए कहा।
मुझसे पहले बच्चे स्कूल से आ गए थे। बच्चों ने बताया कि आज नाना दादा जी को देखने आए थे। उन्होंने मां से कहा, "कमरे से बदबू आती है, तो तुम ही साफ कर दिया करो बेटी। समधी अब बच्चा हो गया है, तुम लोगों का। उससे कैसा संकोच? नहीं करोगे तो गांव-बस्ती वाले तुम लोगों को ही कहेंगे। जमीन-जायदाद सब कुछ बाप का है, उसकी दौलत में ही जी रहे हो और सेवा कुछ नहीं करते। नर्क जैसी जिंदगी दे रखी है। आखिर तुम लोग इसी घर में रह रहे हो। बदबू घर पर फैल गई है। पांच-दस मिनट का काम है। नहीं करोगे तो इसी स्थिति में रहोगे, दिनभर। कोई और देखेगा तो कहेगा कि बहू बेकार है।"
नाना दादाजी के पास बहुत समय तक बैठे रहे, फिर चले गए। "किसी और दिन आऊंगा," ऐसा बोलकर। "क्यों मां?" स्वाति ने हामी भरी और चाय दी, मानो गलती स्वीकार कर रही हो। मैंने इस बारे में उसे कुछ नहीं कहा। बस, इतना समझा कि जिससे प्रेम होता है, उसी की बातें हमें जल्दी समझ में आती हैं। यही बात मैंने कई बार कही, लेकिन उन्होंने मानी नहीं ।
उस दिन से स्वाति रोज कमरे की सफाई कर देती थी। मैं पिताजी के कपड़े बदल देता था। शौच आदि का ध्यान रखना मेरा काम हो गया। दोनों की सेवा से देखभाल कितनी सरल हो गई थी।
एक दिन अचानक महसूस किया कि पिता के शरीर से अजीब सी बदबू आ रही थी। मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। आज वे बोल भी नहीं रहे थे। खाना खाने के लिए कहा तो मना कर दिया। खाट से उठे भी नहीं। स्वाति अब उनकी सेवा कर रही थी, उसे भी अच्छा नहीं लग रहा था। लगाव होने पर आंसू खुद-ब-खुद निकल पड़ते हैं। वह महिला थी, भावुक जल्दी होती थी।
उसने भी कहा, "मुझे अजीब सा लग रहा है।" मुझे भी लग रहा था, लेकिन कुछ नहीं बोला। काम पर जाने का मन नहीं लग रहा था। "क्यों न तुम्हारी बहन को बुला लाएं? डर लग रहा है। तुम्हारे भाई तो नहीं आएंगे?" "इतने दिन हो गए हैं, अभी तक नहीं आया है, वो क्या आएंगे?" मैंने कहा।
मैंने अपनी बहन को फोन किया, वो तुरंत मान गई। उसके आने तक सांझ ढल चुकी थी। अंधेरा छाने लगा था। बहन आते ही कहने लगी...
एक दो दिन का संगी है बाबू जी ।रात गुजर जाए तो ठीक । इसी आशंका से मैं डर गया । पिताजी के पास गया । मैंने फिर पुकारा ।
पिताजी ! मेरी आवाज़ सुन कर" हां "बोला लेकिन आंखें नहीं खोली । दर्द अधिक है शायद ।
"चाय पी लो ।"
"दे । " फिर भी आंख नहीं खोली ।
उसने चाय पी और हिचकी ली
"जल्दी से जमीन पर उतारो "मेरी बहन ने कहा ।
"किसे "
"बाबू को । "
"क्यों !"
मैं कहता रहा । मेरे जीजा और बहन जमीन पर उतार दिया ।
जमीन पर उतरते ही पिता जी के मुंह से "राम " आखिरी शब्द निकल गया । बस क्या था, मुंह खुला रह गया ।
"अब नहीं है ।" कहकर बहन दहाड़ मारकर रोई ।
मेरा भी गला भर आया ।
"पिताजी, पिताजी " मैं कहता रहा । मेरी एक आवाज पर हां बोलते हो । अब क्यों चुप हो । दहाड़ मारकर रोने लगा ।
अब नहीं उठेगा । मेरी बहन ने कहा । स्वाति भी रोने लगी । हम सबको रोते देख बच्चे भी रोने लगे । शायद ! वो भी समझ गए थे। दादाजी अब नहीं उठने वाले ।
हम लोग रोते रहे । हम लोगों को सम्हालने वाले कोई नहीं था । जीजा जी सबको रोते देख उसकी भी आंखे भर आई । फिर भी उसने सभी भाईयों को सुचना दी कि उसके पिताजी नहीं रहे ।
भाई आए मगर पिताजी का मुंह नहीं देखा। बाहर बरामदे में बैठ गए ।
हम लोग रात भर रोते रहे । कौन आया ? कौन गया ? किसी की ओर ध्यान न रहा । पड़ोसी समझाते हुए चले जाते थे ।
जब सबेरा हुआ तो गांव के लोग आने लगे । पिताजी को देखते और हमें ढांढस बंधाते । अपने बेटे को अकेला छोड़ गए । एक दिन जाना तो सबको है । बेचारा ! अच्छा इंसान था । कभी किसी का अहित नहीं किया ।
जितने मुंह उतनी बातें ।
चलो! चलो! जल्दी से अंतिम सफर की तैयारी करो। कंडे और लकड़ी इकट्ठे करो। सभी रिश्तेदार तो आ गए हैं। यह सुनकर भाईयों ने तुरंत हामी भर दी। "जल्दी करो," उन्होंने कहा। उनकी आंखों में आंसू नहीं थे, न ही दुःख। शायद उन्हें पता भी नहीं था कि कब से तबीयत खराब थी। जो आदमी जीते जी देखने नहीं आए थे, वही अब बोल रहे थे, जैसे वही सबसे समझदार हों।
हम लोगों की सेवा केवल हमारे पिताजी जानते थे, इनकी सारी बस्ती। दशगात्र तक हमारे दुःख कम हो गए थे। मैं और मेरी पत्नी उन सबके मुंह देखते रह गए। न जाने कैसे-कैसे लोग अपने-पराए होते हैं । लेकिन मैं इतना जान गया । मैं और मेरा परिवार आज एक साथ हैं ।
-राजकपूर राजपूत
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