प्रकृति और पुरुष nature and man poetry

nature and man poetry 
मैं  जब भी 
खुद के अंदर झाकता हूँ 
खुद को अकेला पाता हूँ 
मेरा अधिकार  
या  फिर  कहे मेरा हक 
जिसको मैं अपना मानता हूँ 
जैसे - मेरा हाथ, मेरी आँखें 
मेरा पैर  मेरी नाक,,,, आदि
शरीर के  अंगों से लेकर 
अपनी आत्मा तक
परिवार से लेकर 
जमीन तक 
केवल मेरा  होने का 
प्रतीक है 
जिस पर मैं 
अधिकार या गुमान 
करता हूँ 
जब भी झाकता हूँ 
खुद के अंदर 
खुद को अकेला पाता हूँ 
और इसी 
प्रकृति में उलझा  रहता हूँ 
इसी दावे के साथ 
चलता हूँ 
जिंदगी भर 
मेरे पाँच कर्मेन्द्रियों
मेरे पाँच ज्ञानेंद्रियों 
और उसकी प्रकृति के अधीन
रसास्वादन करते हुए 

मैं ... 

nature and man poetry 

जिसके इशारे पर 
मेरी सोच चलती है 
मुझे सुख दुःख की 
अनुभूति होती है 
उलझा रहता हूँ 
इन्द्रियों की प्रकृति में 
पेट की भूख की तड़प में 
यौनागों  की प्यास में 
बेहतर जीवन की तलाश में  
जिंदगी बीत जाती है 
और ...
आस अधूरी रह जाती है
अपनी ही प्रकृति में
विचरण करता हूॅं
उलझा रहता हूॅं
खुद के भीतर
अकेले रहता हूॅं
इसी अहसास में
मैं हूॅं
पीने वाला
जीवन को
जानने वाला
खुद को
लेकिन
कभी कभी सोचता हूॅं
मेरा अहसास अधूरा है
मेरे भीतर कोई पूरा है
जो मुझे रसास्वादन कराते हैं
कई भावों का
स्वाद चखाते हैं
भीतर ही भीतर
हर जगह
अपनी उपस्थिति देकर
मुझे करीब पहुंचा कर
अनुभूति कराकर
जो असीम ऊर्जा है
मेरे इंद्रियों से बंधा है
देखने वाला
चखने वाला
हर बाह्य और भीतरी आवरण को
मेरे लिए
गुण दोष का परिचय कराकर
मन को खींच कर
सुख दुःख की अनुभूति में
निर्दोष भाव से
तटस्थ होकर
जिसके शरीर से
निकलते ही
इंसान
बेजान हो जाते हैं
क्रियाहीन
मिट्टी समान
शरीर
क्षरण होकर
अपने अपने तत्वों में
विलीन हो जाते हैं
और अपनी उपस्थिति
खो जाते हैं
इस धरती पर !!!

मृत्यु 

मेरी मृत्यु के बाद
गहरी निद्रा में सोने के बाद
उस अंधेरे में
कोई मुझे मिला सकता है
अंधेरों को हटाने के बाद
जो तेज प्रकाश बचता है
स्थिर, स्थाई
जिसके मिलने से
अंधेरा खत्म हो जाता है !!!!
---राजकपूर राजपूत''राज''







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