मैं कौन हूॅ॑

मैं कौन हूं 


सोचा,, चलो खुद को
खुद में
ढूंढा जाय
कुछ पल ही सही है
मन को रोका जाय
इसीलिए बड़ी तैयारी से 
मैैंने-
बड़े ही सहज हो कर 
और आराम से
निवृत्त होकर के 
सारे कामों से
सुखासन में बैठकर, 
मन मारकर
हठधर्मिता दिखाकर
लगभग एक घंटा मानकर
ध्यान लगाकर, 
खुद से पूछता हूॅ॑ !
मैं कौन हूॅ॑ ?
मैं कौन हूॅ॑ ?
और.…
मन देखता है, 
कुछ ढूंढ़ता है
दुकानों में, 
गलियों में
किसी के बातों में, 
परेशानी में
मन चक्कर काट रहा है
आराम कहाॅ॑ पा रहा है
उससे मुलाकात हुई
ना जाने क्या- क्या बात हुई ??
फिर मन उचका
वहाॅ॑ से मन भटका
पता नहीं क्या क्या किया
मैंने मन में जोर दिया
कुछ हसीन ख्वाब देखें
 हाॅ॑ ,,
अपनी कई चाहतों को देखें
खुद के अंदर खुद को देखा
मानों जीवन की तलाश को देखा
यहाॅ॑ जरुर कुछ टिका
फिर मन भटका
एक नई तलाश में
कुछ बुद्धिजीवियों के
संवाद में
फिर मन भटका
उसके बरगलाने में
ध्यान को लगा झटका
क्योंकि उसने
कुछ सवालों को पटका
जिसका जवाब
नहीं था उसके पास
केवल सवाल,,, सिर्फ सवाल
ध्यान मेरा टूट गया
और मैं उठ गया

दूसरे दिन

दूसरे दिन
सारे कोलाहल को
रोक दिया
कुछ चिंतन किया
अब तक मैंने क्या किया
कुछ भी तो नहीं
बस एक शरीर धरा
मिट्टी का
जिसमें बस गया था
अपने शरीर के
इंद्रियों पर
मेरा काबू ना था
जिसकी वजह से
कुछ भावनाएं थी
जहाॅ॑ मेरी दिलचस्पी थी
वहीं मेरी दिल्लगी थी
फिर -
कुछ विचारों को रोककर
मन को कुछ टोककर
मन के अन्दर झांका
इस धरती पर
अपने अस्तित्व को आंका
कुछ भी नहीं था
मेरे अंदर
आकाश कि तरह
एक अनन्त मन
गति करता हुआ
विचरण करता हुआ
क्षण - क्षण, प्रतिक्षण
एक नए अहसासो में
रमता हुआ
बहता हुआ
दिशाहीन
कभी इंद्रियों के लिए
चिंतन करके,
गुण दोष का
परिचय कराया
कभी भाया,
कभी डराया
कभी बुद्धि ने
मन को हराया
कभी मन ने
बुद्धि को हराया
फिर भी
अपने अस्तित्व को
समझ ना पाया
खुद के अंदर
कौन रहता है ?
सुख दुःख को 
कौन सहता है ??
शायद ! यही मेरी पहचान है
इसी से मिलने का अरमान है
रंग - रूप गुण - धर्म से
कुछ और हूॅ॑
इसलिए पूछता हूॅ॑
मैं कौन हूॅ॑
निरंतर तलाश में
भटकती हुई आत्मा
तो नहीं !!!!
---राजकपूर राजपूत
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