ॠषि सुबह-शाम ईश्वर की प्रार्थना और ध्यान में समय बिताते थे । सूरज चढ़ते ही भिक्षा मांगने के लिए अपनी कुटिया से निकल पड़ते । शेष बचे समय में लोगों को जीवन का उद्देश्य बताने में और अपने कुटिया के पास लगाएं हुए पेड़ पौधों से जड़ी- बूटियों को इकट्ठा करने में व्यतीत करते थे । कई व्याधियों का इलाज वे जानने थे । इस काम को वे मुफ्त में करते थे । लोगों की सेवा करने में उसे अपार खुशी मिलती थी । उसके कामों में उसकी पत्नी भी मदद करती थी । लेकिन पत्नी कुटिया के आस-पास के कामों में ही सहयोग दे पाती थी ।
दूर जंगलों में जा नहीं पाती थी । क्योंकि उन दोनों का एक पुत्र भी था । जिसके देखभाल के लिए उसकी पत्नी कुटिया में ही रूक जाती थी । दोनों अध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण थे । जीवन के सही मायने जानते थे । अपने हर कर्मो से लेकर व्यवहार की बातों में जीवन का सही आंनद लेते थे । आस-पास में फैली खुशियों को अच्छी तरह से अनुभूति करते थे । जीवन का उद्देश्य ही है कि जो ईश्वरीय वरदान स्वरूप प्रकृति में विद्यमान झलकियाॅ॑ है.. जो हमें प्राप्त है उसे हम अपने भीतर अनुभूति कर सके और एक शांतिपूर्ण जीवन जी सकें ।
पुत्र के अठखेलियों को देख जो आंनद का अनुभूति होती है,,, उसका वर्णन नहीं कर सकते हैं । माॅ॑ अपने पुत्र को चाहे थप्पड़ मारे या दुलार करें । पुत्र माॅ॑ के आंचल को छोड़ते नहीं । क्योंकि वे जानते है कि माॅ॑ के आंचल के सिवा कोई दूसरा सुरक्षित जगह नहीं है । जो कठोरता दिखाते हैं,, केवल ऊपरी है,भीतर कोमल भाव होते हैं । पिता की कठोरता वास्तिवक जान पड़ते हैं । जमीन धरातल से जुड़े हुए ।
ऋषि में इतनी कठोरता नहीं थी । वह माॅ॑ और पुत्र की क्रियाकलापों से आनंदित रहते थे । अपने जीवन से बहुत संतुष्ट थे । ईश्वर से प्रार्थनाएं करते कि इसी तरह से प्रभु का और जीवन की खुशियों की अनुभूतियाॅ॑ होते रहे ।
दिन इसी तरह से गुजर रहे थे कि उसकी कुटिया के पास गांवों में अजीब-सी बीमारी का प्रकोप हो गया । जिसके इलाज के लिए ऋषि को अपनी कुटिया से कुछ दूर जाकर जड़ी-बूटियाॅ॑ इकट्ठा करने में थोड़ी सी परेशानी हो रही थी ।
पत्नी से कहा- "चलों ! आज मेरी कुछ मदद कर दो । गांव वाले इस नई बीमारी से बहुत त्रस्त है । "
"वो सब ठीक है लेकिन हमारे पुत्र का क्या होगा ? अकेले किसके भरोसे छोड़े !!!
पत्नी के कहने पर ऋषि ने कहा - "बस कुछ पल लगेगा, उसके बाद पुनः आ जायेंगे । अपने पुत्र को कुटिया में सुला के चलें जाएंगे । नींद खुलने से पहले ही वापस आएंगे ।"
ऋषि की पत्नी भी मान गई । और दोनों जंगल की ओर चलें गए ।
ऋषि और उसकी पत्नी को आने में देर हो गई । माॅ॑ की ममता अपने बालक के लिए अधीर हो रही थी ।
- "चलों ! और कितने समय लगेंगे ।"
- "बस हो गए । "
इतना कहके ऋषि कुछ और जड़ी-बूटियाॅ॑ इकट्ठा करने लगे ।
इधर बालक रो-रोकर अपना बूरा हाल बना लिया था । इतने जोर से रो रहे थे कि उसकी रोने की आवाज सुनकर आकाश मार्ग से गुजर रहे देवराज इंद्र भी चकित हो गए । उसका हृदय द्रवित हो गया । ऋषि की कुटिया में आ कर देखा तो आश्चर्य में पड़ गए । मनमोहक, आकर्षक और अनुपम छवि व आभा चेहरे पर चमक रही थी । इतना प्यारा बालक को क्यों रूला रहे हैं । उसे बहुत दुःख हुआ । चुप कराने का बहुत प्रयास किए लेकिन चुप नहीं करा सके । बालक बोल ना सकते हैं लेकिन अपने पराए की पहचान जरूर कर ही लेते हैं । उसके हाथों में आने पर और जोर से रोना शुरू कर दिए । देवराज इन्द्र को भी समझ नहीं आया । क्या किया जाए !!!
अपने दिव्य दृष्टि से ध्यान लगाके देखा तो ऋषि और उसकी पत्नी जंगल में जड़ी-बूटियां इकट्ठा कर रहे थे । उन दोनों की बातों को सुनने लगे । आखिर उसे पता चल ही गया कि वे लोग किस काम के लिए जंगल गए हैं ।
अहा ! कितने महान विभूतियां है दोनों । पवित्रता और सादगीपूर्ण जीवन जीते हैं । अपने कर्मो से दुनिया का उद्धार कर रहे हैं । ऐसे पुण्य आत्माओं की मदद जरूर करना चाहिए । लेकिन कैसे..?
कुछ देर विचार करने के बाद उसकी ऑॅ॑खों में चमक बिखर गई । जरूर ऐसे ही करूंगा । देवराज इंद्र ठान लिया । अब वह बहुत प्रसन्न हुए । कुछ देर बाद अपनी शक्तियों से बालक की उम्र सोलह-सत्रह साल के एक किशोर सुकुमार बालक के रूप में ला दिया । अब वह चुप हो गया ।
देवराज इन्द्र बहुत प्रसन्न हुए । यह सोच के कि ऋषि की मदद कर चुके हैं । अब उसके कार्यों में सहायता करने वाले मिल जाएगा । बालक को माॅ॑-बाप की पहचान बता दिया और प्रसन्न होकर चले गए ।
कुछ देर बाद ऋषि और उसकी पत्नी आई लेकिन अपनी कुटिया में पुत्र को ना पाकर वे बहुत परेशान,,अकुलाहट भरी ऑ॑खों से सभी ओर घुमा डाले लेकिन पुत्र की कही पता ना चल पाया । ऋषि को भी कुछ समझ नहीं आ रहा था । दोनों ढुॅ॑ढ़-ढुॅ॑ढ के परेशान हो गए । ऋषि की पत्नी उसे कोसने लगी - "यह सब आपकी वजह से हुई है । मेरे पुत्र को वापस लाओ ।"
उसी समय उन दोनों की दृष्टि पास सुकुमार किशोर बालक पर पड़ी । पास आते ही चरण स्पर्श किए । और बताया कि वही उसका पुत्र है ।
यह सुन के ऋषि अचरज में पड़ गए । क्रोधित होते हुए बोला- निश्चित ही तुमने हमारे पुत्र को कही छिपा दिए हो जो यहाॅ॑ आकर हमसे छल कर रहे हो । तुरंत ही बताओं नहीं तो तुम मेरे गुस्से में जल के नष्ट हो जाओगे ।
ऋषि गुस्से से भभक रहे थे । माॅ॑ की ममता रो रही थी । ये क्या हो गया । किसने हमारे पुत्र के साथ ऐसा किया है ।
इतने में वहाॅ॑ देवराज इन्द्र उपस्थित हो गए । आते ही ऋषि का नमन किया और प्रसन्न चित्त हो बोले - "आप महान विभूति है,,इस पृथ्वी लोक का । आपके द्वारा किए जा रहे कार्य सभी के लिए अनुकरणीय है ।आप इस पृथ्वी लोक में देवतुल्य है । आपके इस कार्य में सहयोग स्वरुप मैंने अपनी दैवीय शक्ति का प्रयोग करते हुए । आपके पुत्र की उम्र उचित समझ कर आगे बढ़
दिया । जिससे आपके द्वारा किए जा रहे महान कार्य में सहयोग हो सके । "
इतना कहकर देवराज इन्द्र गर्वोक्ति के भाव से भरकर ऋषि के सामने खड़ा हो गया ।
जिसे देख ऋषि क्रोध से भर गया । गुस्से से बोला -
"अभी तो हमने अपने बालक के नटखटपन को जी भर निहार नहीं पाएं थे । बालपन के अठखेलियों से जो हमें आनंद प्राप्त होते उसे भी छीन लिया । छोटे बालक की मनोहर लीला क्या होती है ..? आप जैसे देवताओं को जरूरत नहीं होगी,, लेकिन हमें है । आज तुमने हमारी खुशियाॅ॑ छीन ली । प्रकृति के नियमों को सत्यानाश कर दिया है । अपनी शक्तियों का दुरुपयोग किया है । हमारी इच्छा जाने बिना मनमर्जी से ऐसे कृत्य किए हो । इसलिए मैं तुम्हें श्राप देता हूॅ॑ । आज से एक वृक्ष बन जा । सब कुछ समझोगे लेकिन कुछ नहीं कर पाओगे । अपनो की याद हमेशा सताएंगे फिर भी कुछ नहीं कर पाओगे ।
ऋषि के गुस्से से डर कर देवराज इन्द्र कांपने लगे । कांपते हुए कहा - "आप तपस्वी है । आप मुझको ऐसा श्राप ना देवें । मुझसे गलती हो गई है । क्षमाप्रार्थी हूॅ॑ । "
इतना कहकर ऋषि के चरणों में गिर गया ।
"एक बार दिया गया वरदान और श्राप वापस नहीं होते हैं । इस बात से अच्छी तरह से परिचित हो देवराज इन्द्र । फिर भी मैं इतना कहता हूॅ॑ । जिस दिन कोई देवता तुम्हारी छांव तले विश्राम करेंगे उस दिन श्राप से मुक्ति मिल जाएगी । इतना कहते ही देवराज इन्द्र वृक्ष बन गए और ऋषि अपने पुत्र को उसी रूप में स्वीकार कर लिया । जो होना था वो तो हो चुका था । पश्चाताप करना व्यर्थ है । और फिर से अपने जीवन को व्यवस्थित करने लगे ।
कई वर्षों के बाद भगवान श्रीकृष्ण जब उस वृक्ष के नीचे आए तब जाके देवराज इन्द्र का उद्धार हुआ ।
जय श्री कृष्ण 🙏🙏
---राजकपूर राजपूत''
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