समय गुजरा । और वो शहर चलें गए। मैं गांव में ही रह गया । खेती बाड़ी की वजह से। फिर भी हमारी दोस्ती कम नहीं हुई। वो जब भी आते मुलाकात करके ही जातें थे। शहरों का रहन - सहन का असर उस पर भी पड़ चुका था। बोलचाल में बहुत सभ्यता और शिक्षित जान पड़ता था। बातों में उसके आत्मविश्वास झलकता था।भय, संकोच उसके पास नहीं थे।
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एक दिन जब वो मेरे गांव आए तो वो मुझसे कहने लगे-"यार रवि , तुम हमेशा गांव में ही रहते हो। बीच-बीच में शहर भी आया करों । हम लोग तो है । घुमने-वूमने ।क्यों…?"
"क्या करें..! समय ही नहीं मिल पाता । खेती -बाड़ी से ।अब तुम कह रहे हो तो देखूंगा ।"
"क्या है, हमेशा एक जगह रहने से विचार संकुचित होता है । नये-नये लोगों से मिलोगे तो दुनिया के बदलाव से भी परिचित रहोगे ।"
"चलों ! ठीक है.! कभी देखेंगे ।"
और मैं चुप हो गया । विजय की बातों में अपनापन का भाव था । वह मुझे बहुत मानते हैं और मैं भी । तभी तो कह रहे हैं ।
आखिर मुझे उस शहर में कुछ काम की वजह से जाना पड़ा । शहर पहुंचते ही मैंने विजय को फोन लगाया ।सोचा आया हूॅ॑ तो मुलाकात भी कर लूॅ॑ । कुछ देर बाद विजय अपने बाईक से मुझे लेने आ गए ।
देखते ही हम दोनों बहुत खुश हुए । उसने मेरा हालचाल पूछा । इधर- उधर की बातें हुईं और उसके ऑफिस पहुंच गए । वहाॅ॑ से उसने छुट्टी ली और हम दोनों घर आ गए ।
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विजय के घर में सभी जरुरतों का समान था । रहना भी चाहिए । शहरों के हिसाब से। घर में माॅ॑-बाप और पत्नी थी । माॅ॑-बाप इतने दिनों से शहर में रह रहे थे फिर भी गांव के लोगों जैसा ही बोलचाल था । और शायद ! माॅ॑ बीमार भी थी । हाॅ॑,पत्नी पुरी तरह से शहरी जान पड़ती थी । कपड़े- लत्ते से । कुछ देर बाद विजय ने कहा-"चलों ! मैं तुम्हें शहर घुमा लाऊॅ॑ ।"
और हम दोनों तैयार हो गए। बाइक निकाले । जैसे ही घर से जब निकल रहे थे तो विजय के पिता जी ने कुछ पैसे मांगे । उसकी ऑ॑खों में अजीब सी मासुमियत थी । शायद डर रहा था या संकोच कर रहे थे । जिसे देखकर मुझे अच्छा नहीं लगा । खिसयाते हुए विजय ने कहा-"क्या करोगे ? रोज-रोज पैसा ।"
"दवाई खरीदूंगा ।"
बड़े भोलेपन से कहा । बीमार पत्नी के लिए होगी । और विजय ने खिन्नता से कुछ रुपए निकाल के दे दिया । मानों उसका मन ना हो । फिर भी दिया ।
यह सब देख मैंने कहा-"सबकी निजी कुछ काम रहता है। कुछ ज़रुरत रहती है। कुछ पैसे बिना मांगे ही दें देना चाहिए।"
"अरे ! इन लोगों की आदतें खराब है। पैंशन से मिलने वाले पैसों को यदि पूरे दे दो तो कुछ ही दिनों में खत्म कर देते हैं । इस लिए थोड़ा- थोड़ा करके देता हूॅ॑ । "
अपनी बातों का समर्थन करते हुए विजय ने कहा।
पता नहीं कितना समझदारी का काम करते हैं। ये मुझे नहीं पता। फिर भी अच्छा नहीं लगा और मैं चुप हो गया ।
टहलते हुए हम दोनों जा रहे थे कि एक आटोंवाले से बाइक में थोड़ी सी टक्कर हो गई । विजय झल्ला गए ।
गुस्से से बोले-"देख के नहीं चला सकते।गवार कही के।"
दोनों में बहस शुरू हो गया । दोनों अपनी गलती स्वीकार नहीं कर रहे थे । बहस बढ़ रहा था । आटोवाले विजय को साहब कह के संबोधन कर रहे थे । जो दिख भी रहा था। अच्छे कपड़ों में। जबकि विजय उसे गवार, देहाती। जिसे सुनकर न जाने क्यों मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। मैंने विजय को किसी तरह से वहाॅ॑ से हटाया। आटो वाले भी अपने रास्ते चला गया।
अब विजय कहने लगा कि उसका मूड़ खराब हो गया ।तो मैंने कहा-"गलती किसी का भी नहीं है । बस थोड़ी सी बात है ।"
"थोड़ी सी बात है । एक गवार आदमी जिसे शहरों में रहना- चलना नहीं आता और आ जाते हैं। गमझा गले में लपेटे । मुझसे बहस कर रहा था। उसकी औकात ही क्या है !"
"वो गरीब आदमी है। दिन भर धूप में दौड़ा करते हैं। पसीना पोछने के लिए रखते हैं गमझा। जो आराम से काम करते हैं ना,उसको जरूरत नहीं होती है।"
मेरी बातों को सुन तो रहा था लेकिन गौर नहीं कर रहे थे। अवहेलना कर रहा था या फिर हम दोनों को एक ही मान रहे थे।
कुछ दूर जाने पर भीड़ दिखाई दी। जिसकी वजह से सड़क पर जाम लगा हुआ था। किसी का एक्सीडेंट हो गया था। बीच सड़क पर तड़प रहे थे। कुछ लोग सेल्फी ले रहे थे। कुछ लोग व्यर्थ की संवेदना दिखा रहे थे। शायद ! पुलिस का इंतजार कर रहे थे।।
मैंने कहा-"अरे ! यह भी कोई बात है। बेचारे को एक किनारे पर कम से कम ला देते। आखिर देख क्यों रहे हैं।"
मैं यूॅ॑ ही खुद से बातें कर रहा था। हमलोग वहाॅ॑ से मुश्किल से निकल पाएं।
"ये शहर है। सब अपने-अपने लिए जीते है। किसी के लिए किसी के पास समय नहीं। जो समय देते हैं । वो मुर्ख है।" विजय ने कहा
"इसमें मुर्ख वाली बात ही क्या .? बस उसे सुरक्षित जगह पर ला दे। खड़े होकर देखने में कहाॅ॑ समझदारी वाली बात है।"
वो मेरी बातों को बुरा मान गया । ये सच भी है। जब से आया हूॅ॑ तब से हो रहा है । उसके विचारों के विपरित जा रहा हूॅ॑।
"नेगलेक्ट करना सिखों । तब अपने उद्देश्यों पर फोकस कर सकते हो।"
"इतनी उदासीनता भी अच्छी नहीं कि संवेदनाओं को ही दबाते जाओं। थोड़ी सी जिम्मेदारी में क्या जाता है..?"
विजय चुप हो गया। अब तो हम दोनों का घुमना फिरना फ़ालतू लग रहा था। एक दूसरे का विचारों में मेल नहीं रहा ।
दोनों साथ-साथ पढ़ें थे। अपनी- अपनी बातों को सही साबित करने की कोशिश कर रहे थे । हम दोनों के बातों में केवल जिंद था । कुछ देर बिना बातचीत के घुमते रहे। फिर एक होटल में आ गए । जहाॅ॑ अच्छे लोग आते हैं।
वेटर को विजय ने इशारा करके बुलाया। और वेटर भी अजीब था । सीधे मेरे पास खड़ा हो गया । मीनू चार्ट रख के। उसने कहा-"क्या चाहिए सर?"
विजय थोड़ा असहज महसूस कर रहा था। वेटर से भी कुछ झल्लाहट थी। शायद वो भी गवार है। आदमी की कुछ परख नहीं।
"इधर आओ !" विजय ने वेटर से कहा । वेटर उसके पास चला गया।
विजय खुद को अपने ही नज़रों से बड़ा मानता था। जिसे आज साथ में रह के समझ आ रहा था । अपनी सोच में स्मार्ट । वेटर को खाने का आर्डर दिया ।
जब खाना खा रहे थे तो बीच-बीच में मुझे चोर नज़रों से देखते थे । शायद.! मेरा खाने -पीने का ढंग बता रहा था कि मैं गांव से हूॅ॑ । विजय की नजरों को मैं समझ रहा था। अगल बगल नज़र दौड़ाई कि कौन-कौन मुझे देख रहे हैं । कोई भी तो नहीं । फिर लगा कि विजय ही मुझे ज्यादा देहाती मानने लगे हैं । या फिर दिल के किसी कोने में नफ़रत के भाव रख चुके हैं ।
खाना खा चुके थे । वेटर बिल टेबल पर रख के चले गए । विजय ने बिल देखा और वेटर को बुला कर १००₹का टिप्स दिया । उसने एक खाने का पार्सल मंगाया । खाना खाते समय उसकी पत्नी का फोन लगाई थी । शायद, खाने का पार्सल उसी ने मंगाई हो ।
बाहर निकलते समय मैंने विजय से कहा कि इतने पैसे देने का क्या मतलब है !! उसने उदासी दिखाई, कोई भी जवाब नहीं दिया । शायद,वह अक्सर ऐसे होटलों में आते हैं । जहाॅ॑ बैंठ के खाते पीते हैं । पता नहीं क्यों मेरे दिल में टिप्स की बात खटक रही थी । अंदर ही अंदर विजय जी के दोहरा चरित्र सामने आ रहा था । व्यवहार में कुछ और दिल में कुछ और था ।
शाम हो चुकी थी और उसे घरों के लिए सब्जी खरीदना था । सब्जी के लिए एक ठेले के पास रुका । कीमत सुन के वह अचरज में पड़ गया ।
"इतना रेट.! पूरे लूट रहे हो । "
सब्जी वाले कीमत कम करने का नाम नहीं लिया । फिर भी दो पैसे कम ही दिए ।
मुझे थोड़ा-सा अजीब लगा। टिप्स देते समय ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं पड़ी, यहाॅ॑ बहुत सोच समझ रहे हैं । खैर अपना अपना समझ ।
शहर की सड़कें अब शांत महसूस हो रही थी । गाड़ियों में वो रफ्तार नहीं थी जैसे सुबह के समय होते हैं । दिनभर के कामों से सब थक चुके थे । दौड़ भाग में ठहराव महसूस हो रहा था ।
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घर में जब आया तो उसके माता-पिता अपने कमरे में आराम कर रहे थे । सुबह के बचें खाना को ही खा लिए थे । खाने का पार्सल जो लाया था । वो अपनी पत्नी के लिए ही लाया था ।
विजय मेरे पास ही रहा । एक ही कमरे में सोए भी । वह बचपन की बातों को याद करते हुए मुझसे ढेरों बातें की । वह बहुत खुश था और मैं भी । वह दिन भर के मेरी बातों को भुल चुके थे । जो मुझे अच्छा लग रहा था ।
फिर भी न जाने क्यों..? कुछ खटक रहा था । अब अपनापन महसूस नहीं हो रहा था । कुछ दूरी है जो दिल से अलग कर रहे थे ।
समझदार तो ठीक है, नेगलेक्ट करना अच्छी बात है। लेकिन उसकी भी सीमा हो । सही गलत की पहचान हो ।
माॅ॑-बाप के पैसों का हिसाब-किताब दिमाग से और टिप्स देना दिल से । अपने खर्च को जरूरत मानते थे और आवश्यक भी । माॅ॑-बाप के लिए फिजूलखर्ची । गरीबों के लिए हेय दृष्टि । अमीरी जीने के लिए लालायित नज़र । जैसी बातें अपनापन से दूर कर रहा था।
सुबह जब गांव आने के लिए निकल रहा था तो विजय ने मुझसे पूछा:- "फिर कभी आओगे तो मुलाकात कर लेना । "
हाॅ॑ , कोशिश करुंगा ।" मैंने कहा ।
हम दोनों के बातों में अपनापन तो था लेकिन केवल व्यवहारिक । दोनों समझ रहे थे । एक-दूसरे का नजरियें को । दोनों ही एक-दूसरे पर दोहरा एहसास कर रहे थे ।
-राजकपूर राजपूत''राज''
2 टिप्पणियाँ
मानवीय संवेदनाओं को छूती रचना
जवाब देंहटाएंVery good
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