बिना पते की चिट्ठी-भाग सोलह Letter without Address - Part Sixteen

 बिना पते की चिट्ठी-भाग सोलह Letter without Address - Part Sixteen 

शालिनी ने काँपती हुई आवाज़ में कहना शुरू किया,

“जोहन… घर में माहौल ठीक नहीं है। सब मुझसे नाख़ुश हैं। भाई… तुमसे मिला है शायद, उसके बाद से वह बहुत बदल गया है। पिता भी चुप रहते हैं। मुझे डर है कि कहीं यह सब हमारे रिश्ते पर असर न डाल दे…”


थोड़ा रुककर उसने गहरी साँस ली।

“मुझसे सहा नहीं जा रहा था… इसलिए तुम्हें फोन किया।”


कुछ पल के लिए दूसरी तरफ़ खामोशी छा गई। फिर जोहन की धीमी, पर भरोसा दिलाने वाली आवाज़ सुनाई दी—

“शालिनी, मुझे पता था कि तुम अंदर ही अंदर कितना सह रही हो। मैं तुम्हें किसी मुश्किल में नहीं डालना चाहता। लेकिन मैं तुमसे दूर भी नहीं रह सकता। हमें मिलकर बात करनी होगी। अगर तुम्हारे परिवार को मुझसे आपत्ति है, तो मैं उनसे मिलने को तैयार हूँ। कम-से-कम वे जानें तो सही कि मैं तुम्हारी कितनी कद्र करता हूँ।”


जोहन की बातें सुनकर शालिनी के भीतर जैसे कोई गाँठ ढीली हो गई। उसे पहली बार लगा कि वह अकेली नहीं है। लेकिन फिर उसकी माँ का चिंतित चेहरा याद आया और मन फिर उलझ गया।

Letter without Address - Part Sixteen 

“जोहन… मैं चाहकर भी तुरंत फ़ैसला नहीं कर पा रही। माँ चाहती हैं कि मैं कोई ऐसा कदम न उठाऊँ जिससे घर बिखर जाए…”

“और तुम क्या चाहती हो?”—जोहान ने शांत, लेकिन भीतर से बेचैन स्वर में पूछा।


यह सवाल सुनते ही शालिनी एकदम चुप हो गई। उसके मन में इस प्रश्न का उत्तर था, पर उसे शब्दों में ढालने का साहस नहीं जुट पा रही थी। कुछ पल की खामोशी के बाद उसने धीमी आवाज़ में कहा,

“मैं चाहती हूँ कि सब कुछ ठीक हो जाए। चाहती तो थी कि तुम्हें घर बुला लूँ… लेकिन तुम भी जानते हो, मेरे घर वाले इसके लिए कभी तैयार नहीं होंगे। हमारी शादी उनकी सहमति से नहीं हो पाएगी। इसलिए कोई और रास्ता ढूँढना पड़ेगा, जोहान।”


जोहान की आवाज़ में अचानक दृढ़ता आ गई,

“तो मैं वही तो कह रहा हूँ। हमें भागकर किसी मंदिर में शादी कर लेनी चाहिए।”


शालिनी चुप हो गई। उसकी आँखों में डर और असमंजस उतर गया।

“मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है,” उसने अपनी विवशता जताते हुए कहा। “मैं अपने माँ-बाप को यूँ छोड़कर नहीं जा सकती।”


जोहान का संयम टूटने लगा। उसकी आवाज़ में पीड़ा साफ़ सुनाई देने लगी,

“तो फिर क्या करें, शालिनी? तुम तो अपने परिवार के साथ सुरक्षित हो, और मैं… मैं यहाँ दर-दर भटक रहा हूँ। तुम्हारे भाई ने मेरे मकान मालिक से शिकायत कर दी। मुझे घर से निकलवा दिया गया। अब न ठिकाना है, न सहारा।”


यह सुनते ही शालिनी भौंचक्की-सी रह गई। उसकी आँखें फैल गईं, होंठ काँपने लगे, पर शब्द जैसे गले में अटक गए। अपराधबोध और चिंता ने उसे जकड़ लिया। वह चाहकर भी कुछ नहीं कह सकी—बस चुपचाप जोहान की तकलीफ़ को महसूस करती रही।

शालिनी की चुप्पी जोहान को भीतर तक तोड़ रही थी। वह उसकी आँखों में झाँकना चाहता था, पर मोबाइल के उस पार सिर्फ़ सन्नाटा था।

“कुछ तो कहो,” उसने भारी स्वर में कहा, “कम से कम इतना ही कि मैं अकेला नहीं हूँ।”


शालिनी ने गहरी साँस ली।

“मुझे नहीं पता था कि भैया इतना आगे बढ़ जाएँगे,” उसकी आवाज़ भर्रा गई। “अगर मुझे ज़रा-सी भी भनक होती तो मैं… मैं तुम्हें यूँ असहाय नहीं छोड़ती।”


“मगर छोड़ दिया न,” जोहान ने कड़वाहट के साथ कहा। “आज मुझे समझ आ रहा है कि समाज से लड़ना जितना मुश्किल है, उससे ज़्यादा मुश्किल है अपनों की चुप्पी सहना।”


शालिनी की आँखों से आँसू बह निकले।

“मैं हर रात यही सोचकर सोती हूँ कि कहीं तुम मुझसे नफरत तो नहीं करने लगे,” उसने काँपते स्वर में कहा। “पर सच यह है कि मैं तुम्हारे बिना कुछ भी नहीं हूँ।”


जोहान कुछ पल चुप रहा। फिर धीमे स्वर में बोला,

“नफरत नहीं करता, शालिनी। बस थक गया हूँ। हर जगह दरवाज़े बंद हैं। अगर तुम साथ न दो, तो शायद मेरे पास लड़ने की ताक़त भी न बचे।”


यह सुनकर शालिनी के भीतर कुछ टूट गया। डर, संस्कार और समाज की दीवारों के बीच पहली बार उसने अपने दिल की आवाज़ सुनी।

“अगर… अगर मैं एक बार घर वालों से खुलकर बात करूँ तो?” उसने संकोच से कहा। “शायद माँ समझ जाएँ। शायद वक़्त लग जाए, लेकिन मैं कोशिश करूँगी।”


जोहान की आवाज़ में हल्की-सी उम्मीद जागी,

“क्या सच में?”


“हाँ,” शालिनी ने आँसू पोंछते हुए कहा। “मैं भाग नहीं सकती, लेकिन तुम्हें अकेला भी नहीं छोड़ सकती। अगर हमें साथ रहना है, तो यह लड़ाई मुझे अपने घर से ही शुरू करनी होगी।”


उस रात पहली बार, दर्द के बीच कहीं एक छोटी-सी रोशनी जली। रास्ता अब भी मुश्किल था, मगर कम से कम वे दोनों अब एक-दूसरे से मुँह नहीं मोड़ रहे थे।

अगली सुबह शालिनी की आँख खुली तो रात की बातचीत अब भी उसके मन में गूँज रही थी। जोहान की थकी हुई आवाज़, उसका अकेलापन—सब कुछ उसे चैन से बैठने नहीं दे रहा था। उसने तय कर लिया था कि अब चुप रहना और पीछे हटना कायरता होगी।


 घर हमेशा की तरह शांत था। माँ रसोई में थीं और पिता अख़बार पढ़ रहे थे। शालिनी का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। कुछ पल तक वह शब्द तलाशती रही, फिर अचानक बोली,

“माँ, मुझे आपसे कुछ ज़रूरी बात करनी है।”


माँ ने चौंककर उसकी ओर देखा।

“सब ठीक तो है न?”


“हाँ… पर बात आसान नहीं है,” शालिनी ने धीमे स्वर में कहा। “मैं जिससे प्यार करती हूँ, उसी से शादी करना चाहती हूँ।”


अख़बार हाथ से सरक गया। पिता ने चश्मे के ऊपर से उसे घूरा।

“यह वही लड़का है?” उनकी आवाज़ में सख़्ती थी।


शालिनी ने सिर हिलाया।

“हाँ, पापा। वही।”


तभी बाहर से उसके भाई के कदमों की आवाज़ आई। उसने माहौल की गंभीरता भाँप ली।

“क्या हो रहा है?” उसने पूछा।


शालिनी ने साहस जुटाकर कहा,

“भैया, आपने जो किया, वह ठीक नहीं था। जोहान को घर से निकलवाना… यह गलत था।”


भाई का चेहरा तमतमा उठा।

“गलत?” वह लगभग चिल्ला पड़ा। “मैंने परिवार की इज़्ज़त बचाई है! तुम जानती हो लोग क्या कहते?”


“लोग क्या कहते हैं, इससे ज़्यादा ज़रूरी है कि एक इंसान कहाँ जाएगा,” शालिनी की आवाज़ पहली बार इतनी दृढ़ थी। “वह सड़कों पर है, भैया।”


कमरे में सन्नाटा छा गया। माँ की आँखें भर आईं।

“बेटी,” उन्होंने काँपती आवाज़ में कहा, “तुम जानती हो यह समाज कितना निर्दयी है। हम तुम्हें दुखी नहीं देखना चाहते।”


शालिनी माँ के पास बैठ गई।

“माँ, मैं अभी दुखी हूँ,” उसने उनका हाथ पकड़ते हुए कहा। “अगर आज मैंने अपने दिल की नहीं सुनी, तो ज़िंदगी भर पछताऊँगी।”


पिता ने गहरी साँस ली।

“हमें सोचने के लिए वक़्त चाहिए,” उन्होंने कहा। “यह फ़ैसला जल्दबाज़ी में नहीं हो सकता।”


यह कोई स्वीकृति नहीं थी, पर पूरी तरह इंकार भी नहीं। शालिनी के मन में उम्मीद की एक हल्की किरण जगी।


उसी शाम उसने जोहान को फ़ोन किया।

“मैंने बात की,” उसने कहा। “लड़ाई अभी बाकी है, लेकिन मैंने चुप रहना छोड़ दिया है।”


दूसरी ओर से जोहान की आवाज़ आई, थकी हुई लेकिन सच्ची राहत से भरी—

“इतना ही काफ़ी है, शालिनी। आज पहली बार लगा कि मैं सच में अकेला नहीं हूँ।”


क्रमशः -

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-राजकपूर राजपूत "राज "

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