बिना पते की चिट्ठी-भाग आठ Letter Without Address - Part Eight

 बिना पते की चिट्ठी-भाग आठ Letter Without Address - Part Eight 

शालिनी पत्र के अनुसार उस जगह की ओर चली गई । जिस स्थान का ज़िक्र पत्र में जोहन ने किया था । उसकी आंखें बैचेन थीं ।

शालिनी का दिल जैसे एक साथ कई दिशाओं में दौड़ने लगा।
वो पत्र — छोटा सा था, पर उसके हर शब्द में कोई अदृश्य जादू छिपा था।

“वहीं आना जहाँ शहर की सांझ सुनहरी होती है।”

वह जानती थी — यह वही पुरानी जगह है, झील के किनारे स्थित वह शांत बाग़, जहाँ समय जैसे ठहर-सा जाता है। लोग यहाँ आते हैं — कुछ हाथों में हाथ डाले, तो कुछ अपने साये के साथ। हवा में ठंडी नमी है, पानी पर लहरों का धीमा संगीत, और सबसे बढ़कर —
एक अजीब-सी तन्हाई है यहां —जो इंसान को किसी से जुड़ने नहीं देती, पर पूरी तरह अलग भी नहीं होने देती।
वह संबंधों के बीच झूलती एक सूक्ष्म रेखा-सी है,जहाँ मन न तो बंधन चाहता है,और न ही पूर्ण स्वतंत्रता।

विचारों का यह निर्वात
आदमी को अपने ही भीतर की गलियों में भटकाता है —
जहाँ हर मोड़ पर वही सवाल गूँजता है:
“क्या सच में कोई अकेला होता है,
या बस अपने ही विचारों में उलझा हुआ?”

यादों में वह जगह अब भी उतनी ही ताज़ा थी —
कालेज का वह मैदान, जहां पुराने बरगद के नीचे, जहाँ बेंच थोड़ी सी टूटी थी;
कालेज के पीछे सूरज की परछाईं हर शाम डूबती थी,
और हवा में हल्की ठंडक के साथ कोई अनकहा गीत घुलता था।हम दोनों के साथ में ।

Letter Without Address - Part Eight 

उसने घड़ी देखी — सुबह के साढ़े छः।
मन में हलचल थी, पर कदमों में अब ठहराव नहीं । वह चहल-पहल करती रही ।
उसने सलवार का दुपट्टा ठीक किया, और धीरे से इधर-उधर चलने लगी ।

सड़कें अभी नींद में थीं।
आसमान हल्का नीला, और पूरब में सूरज का पहला रंग उभर रहा था।
हर कदम पर उसकी धड़कन तेज़ हो रही थी।
वो सोची जा रही थी —
"क्या सच में वह आएगा? या यह सिर्फ मेरी कल्पना है?"

उसने चारों ओर नज़र दौड़ाई, कोई नहीं था।
बस झील की लहरों में आसमान का सुनहरा प्रतिबिंब झिलमिला रहा था।

वो बैठ गई।
समय जैसे ठहर गया।
हर आवाज़, हर लहर अब किसी प्रतीक्षा का हिस्सा लग रही थी।

तभी...
पीछे से एक परिचित आवाज़ आई —
“आखिर तुम आ ही गई । ”

शालिनी ने जैसे सांस रोक ली।
धीरे-धीरे उसने सिर घुमाया।
वह था — जोहान।
थोड़ा बदला हुआ चेहरा...
आँखों में अब पहले से कहीं ज़्यादा गहराई थी।
वो ठहराव, वो अनकही बातें — सब कुछ जैसे नज़रों में उतर आया हो।

“तुम…” उसने धीमे से कहा।
“हाँ, मैं,” जोहन मुस्कराया — पर उस मुस्कान में भी हल्की सी टीस थी।

शालिनी ने रुँधे गले से कहा,
“कोई ऐसा करता है क्या? किसी के घर में लिफ़ाफ़ा फेंक जाता है, बदनाम करने के लिए! घर वाले बहुत परेशान हैं… फ़ोन तो कर सकते थे।”

जोहन ने शांत स्वर में जवाब दिया,
“कॉलेज के दिनों में तुम्हारे पास कोई फ़ोन था क्या, जिससे मैं बातें करता? और न ही तुमने कभी किसी का नंबर दिया था…”

शालिनी चुप हो गई।
आँखों से आँसू ढलक पड़े, और अगले ही पल उसने जोहन को कसकर गले से लगा लिया।

कुछ पल यूँ ही बीत गए —
जैसे दोनों एक-दूसरे के लिए बरसों से तड़प रहे हों,
और अब उस तड़प को आखिरकार एक ठिकाना मिल गया हो।

शालिनी कुछ कह नहीं पाई।
सिर्फ एक हल्की मुस्कान उसके होंठों पर आई,
पर आँखें — वे बहुत कुछ कह रही थीं।

शालिनी की आँखें भर आईं।
“वक़्त ने बहुत कुछ बदल दिया, जोहान... घर, हालात, लोग...”
“पर दिल?” उसने धीमे से पूछा।

कुछ क्षण दोनों चुप रहे।
सिर्फ झील की लहरें थी, जो जैसे उनके बीच की खामोशी को आवाज़ दे रही थीं।

फिर शालिनी ने धीमी आवाज़ में कहा,
“मैंने भी कभी नहीं भुलाया... पर डर था, सब कुछ खो देने का।”
“और अब?”
“अब बस सच कहना है — चाहे जो भी हो।”

जोहान मुस्कुराया।
“सच तो यही है कि तुम्हें देखकर फिर से ज़िंदा महसूस कर रहा हूँ।”

सूरज अब झील के ऊपर उग आया था।
सुनहरी रोशनी ने दोनों के चेहरों को एक साथ छू लिया।
जैसे वक़्त ने खुद उनकी कहानी को फिर से रंग दिया हो।

दूर कहीं मंदिर की घंटी बजी,
और उस आवाज़ में जैसे उनके दिलों का सारा बोझ हल्का हो गया।
शालिनी ने कहा —
“माँ को सब बताना होगा, जोहान।”

वह कुछ देर चुप रहा। फिर धीमे स्वर में बोला —
“अगर सच्चाई में अपनापन है, तो डर किस बात का?
लेकिन अभी मत बताओ, शालिनी... मेरे हालात ठीक नहीं हैं। गाँव से आए मुझे महीना भर हो गया है।”

“तो क्या हुआ?” उसने सहजता से पूछा।

जोहान ने नज़रें झुका लीं —
“मेरे पास पैसे नहीं हैं। कुछ दिन मुझे इस शहर में काम करने दो। गाँव से भागकर आया हूँ... सबको यही कहकर कि शहर में नौकरी करूँगा।”

शालिनी ने उसकी ओर देखा —
उसकी आँखों में अब कोई भय नहीं था, केवल दृढ़ता थी।
शायद यही वह क्षण था, जब उसने पहली बार महसूस किया कि डर से बड़ी चीज़ है — विश्वास।
जोहान के प्रेम में उसे वह शक्ति मिल रही थी, जिसकी तलाश वह अब तक खुद में कर रही थी।

वो दोनों उठे, और झील के किनारे से शहर की ओर चल पड़े —
जहाँ सांझ सुनहरी नहीं, बल्कि एक नई सुबह बन रही थी।

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घर का दरवाज़ा खोलते हुए शालिनी के कदम काँप रहे थे।
सूरज अब पूरी तरह उग आया था, आँगन में हल्की धूप बिखरी थी, पर उसके भीतर अजीब सी ठंडक थी — जैसे कोई बड़ा फैसला उसके सामने खड़ा हो।

घर में प्रवेश करते ही माँ की आवाज़ आई,
“शालिनी, कहाँ गई थी इतनी सुबह?”
माँ चौखट पर खड़ी थीं, उनकी आँखों में नींद नहीं थी — लगता है रात उन्होंने भी जागकर गुज़ारी थी।

शालिनी ने नज़रें झुका लीं। उसकी पलकों की छाँव में चेहरा और भी शांत लगने लगा। माँ ने गौर से देखा — शालिनी के चेहरे पर एक अजीब-सी चमक थी, जैसे भीतर कहीं कोई नया अनुभव जन्म ले रहा हो। उस चमक में संकोच भी था, और एक हल्की-सी प्रसन्नता भी। जो डर अभी कुछ क्षण पहले उसके चेहरे पर साफ़ झलक रहा था, वही अब उस चमक के नीचे दब-सा गया था। माँ ने महसूस किया कि शायद शालिनी के भीतर कुछ बदल रहा है — कोई निर्णय, कोई स्वीकार, या शायद किसी अनकही भावना की हलचल। कमरे में हल्की-सी चुप्पी थी, लेकिन उस चुप्पी के भीतर बहुत कुछ कहा जा चुका था।

क्षण भर के लिए माहौल थम गया।
सिर्फ़ दीवार पर लगी घड़ी की टिक-टिक सुनाई दे रही थी।

Letter Without Address - Part Eight


क्रमशः -

-राजकपूर राजपूत "राज"

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