त्याग - रिश्तों का - कहानी Sacrifice - Story of Relationships

 Sacrifice - Story of Relationships सुलोचना अपने बेटों की लापरवाही भरी जिंदगी से तंग आ चुकी थी। कई बार समझाने के बाद भी उनकी बातों का असर नहीं होता था। उसके बेटों ने तो हद कर दी थी, जितना भी कमाते थे, सभी उड़ा देते थे। पैसे नहीं मिलने पर दूसरों से पीने-खाने की जुगत में लगे रहते थे। हां, रोज-रोज पीते जरूर थे।

Sacrifice - Story of Relationships

सुलोचना की चिंता और हताशा चेहरे पर साफ देखा जा सकता था ।  उम्र अभी मुश्किल से पचास की हुई होगी लेकिन शरीर की चमड़ी सिकुड़ चुकी थी । लोग कहते हैं, ज्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए । हां, सही है मगर दुःख अस्थाई हो तब न , स्थायी हो तो क्या करें । 

घर में बीमार पति है । जिसके स्वास्थ्य ठीक होने की उम्मीद नहीं है । चलते फिरते तो है,लेकिन घर में । बाहर कुछ काम करने की क्षमता नहीं है । इसलिए घर की सारी जिम्मेदारी अकेली सुलोचना पर आ गई थी । 

रही सही कसर को उनके भाईयों ने पुरा कर दिया था । मां-बाप की मृत्यु के बाद जमीन जायदाद को यह कहकर अपने-अपने नाम कर लिए,कि जिंदगी भर बहन की पूछ परख करेंगे, लेकिन उसके दस्खत करते ही सभी मुंह फेर लिए । अब घर बस बचा है । उसके बाद तो वे लोग उसकी ओर निहारेंगे भी नहीं । उसे पता है, भाइयों की समझदारी ,, कल क्या होगा !


घर की सारी जिम्मेदारी सुलोचना बखूबी पूरी करती थी। वह खेतों को पानी, खाद आदि समय-समय पर करवा लेती थी। बेटों को ताने मार-मारकर सभी काम समय पर करवा लेती थी। हालांकि उनके बेटे इन कामों के लिए पैसा मांग लेते थे, जैसे उनका घर नहीं है। यही छोटी-छोटी भावनाएं उसे अंदर से खोखला कर चुकी थीं। बेटों की अनदेखी और असंवेदनशीलता ने सुलोचना के दिल को गहरा दर्द दिया है ।


आस-पड़ोस और रिश्तेदारों से जब अपना दुखड़ा सुनाती थी तो वो लोग अपने-अपने सुनाने लगते थे। उसकी भावनाओं का समर्थन कभी नहीं मिला। वह खुद को अकेला महसूस करता था, जैसे उसके दुखों को कोई समझने वाला नहीं है। इस अकेलेपन ने उसके दर्द को और बढ़ा दिया था।

इन सबके बावजूद घर गृहस्थी व्यवस्थित चलता था । परिवार को कभी किसी चीज़ की कमी नहीं हुई । तीन बेटियां और एक बेटा की शादी कर चुकी थी । घर भी पक्का हो चुका था। जिसे देख पड़ोसी भी तारीफ करते थे । बेटा नालायक है , फिर भी परिवार में तंगी नहीं है । एक हम हैं, रात-दिन कमाते हैं, लेकिन बचता कुछ भी नहीं । 


इस खुशहाली के पीछे कितना त्याग है, इसके बारे में कोई नहीं सोचते हैं। देखते हैं तो सिर्फ खुशी। सुलोचना रात-दिन जागती है, घर की चिंता सर पर रखकर सोती है। जरा सी आशंका उसे चिंतन करने के लिए प्रेरित करती है। हमेशा सजग होकर काम करती है, इसी सजगता ने उसे आनंदित होने का अवसर नहीं दिया। उसकी मेहनत और समर्पण के बिना यह खुशहाली संभव नहीं होती, लेकिन उसकी कीमत वह खुद ही जानती है। 


बेटों ने तो यह दावा पक्का कर रखा था कि मां के रहते हमें कुछ नहीं होगा। जिस पर सुलोचना डांटती, "मेरे मरने के बाद तुम लोग तरस जाओगे, एक-एक रुपये के लिए।" लेकिन थक भी जाती थी, बेटों की बातों से, जो जिम्मेदारी से मुक्त होकर मस्ती से कहते हैं। उसने उम्मीद छोड़ दी थी कि उसके लड़के कभी सुधरेंगे। उनकी लापरवाही और निर्भरता ने सुलोचना को चिंतित और थका दिया था। 


उस दिन दोनों भाई आए थे। बहन को देखने के लिए नहीं, मकान के कागजात पर हस्ताक्षर के लिए । भाइयों ने तो हमेशा बहन की तारीफ किया । 

"बहन, घर को कैसे व्यवस्थित चला रही है । हिम्मत चाहिए । भांजे तो ढंग से काम करते भी नहीं हैं । पीने खाने से फुर्सत नहीं है । "


सुलोचना भाइयों के मुंह देखने लगे । अब उसे तारीफ सुनना पसंद नहीं है । 


"ऐसी बात नहीं है, भाई । मैंने यदि कुछ बेहतर काम किया है, तब किया , जब किसी से अपेक्षा या उम्मीद नहीं की है ।अब तुम लोग ऐसे मत समझाना कि मुझे प्रेम नहीं चाहिए । हालांकि ऐसी भावनाएं छोड़ दी है । मेरी दुनिया देखने के बाद । फिर भी ऐसा नहीं है कि मुझे मोह-माया या प्रेम नहीं चाहिए । मैं भी इंसान हूं, प्रेम के बदले प्रेम मुझे भी चाहिए ।बस उम्मीद नहीं है मुझे, किसी से । ला कहां दस्तखत करना है  ? "


उसकी आंखें भर आईं, लेकिन झलकी नहीं। उनके भाई चुप ही रहे। बेटा चुपचाप वहां से चले गए। मानों समझ रहे हैं, मां की उम्मीद ,,, कितना बोझ उठाती है । मां का दस्तखत नहीं था । रिश्तों को तोड़ने के हस्ताक्षर हैं । 


सुलोचना ने भाइयों को रुकने के लिए बोला, मगर भाई "घर पर काम है" कहकर चले गए। उनकी बातों में उदासीनता और जल्दबाजी साफ झलक रही थी, जैसे वे कोई बहाने बनाकर जा रहे हों, न कि अपनों के साथ समय बिताने के लिए रूकना चाहता हो । 


उस दिन से हुआ यूं कि उनके बेटों ने घर के काम के बदले पैसा मांगना तो छोड़ दिया, लेकिन पूरी तरह से पीना नहीं छोड़ पाए। बेटों ने कुछ तो समझा उनके दर्द को। सुलोचना को कुछ राहत मिली, लेकिन संतोष नहीं। यह बदलाव एक छोटी सी राहत तो लाया, लेकिन सुलोचना की गहरी चिंताएं और दर्द अभी भी बरकरार थे। क्योंकि वह एक मां थी ।


-राजकपूर राजपूत 


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