Do jun roti ke khatir
जो मिले हैं तुम्हें आघात
कह नहीं पाए दिल की बात
रह कर सीने में दफ्न हो जाते हैं
चलो ! उसे बाहर ले आते हैं
आओ मरहम बन जाते हैं
चाहत दिल की पूरी नहीं होती
अधूरे अरमान और ऑ॑खें रोती
अकेले में मजबूर इंसान रोते हैं
जिनका दर्द कोई देख नहीं पाते हैं
आओ ! उनका मरहम बन जाते हैं
जो धूप में पत्थर तोड़ते हैं
सुखाकर बदन जला देते हैं
जिनका भाग्य फिर भी हॅ॑स देते हैं
दो जून रोटी के खातिर
अपना जीवन गला देते हैं
आओ उनका मरहम बन जाते हैं
---राजकपूर राजपूत''राज
2 टिप्पणियाँ
बहुत ही सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंयथार्थ
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