खूंटा

गनपत बहुत फेकू आदमी था । चालीस-पचास साल की बातों को ऐसे बताते थे,मानों वे अपनी आंखों से देखा हो ।लोग उससे समय गुजारने आते थे । बच्चों को तो वे बिना कहे ही मनगढ़ंत कहानी सुना देते थे।'

''आजसे बीस साल पहले बहुत भुत थे। कहते है घर के आसपास,घर के ऊपर, वे घूमते रहते थे । पहले के आदमी डरते नहीं थे । मरघट के पास में ना जो खाली पडा़ तालाब है। उसमें शनिवार के दिन भूतों का बाजार लगता था ।सब भूत खानें की चीज खरीदते थे और जानते हो,बाजार में क्या मिलता था ।"

नहीं..बताओ ना..!बताओ ना...! गोलू ने कहा । कुछ बच्चे उसको घेरे बैठें थे।

''तो सुनो,मेरे दादा जी एक रोज खेत में काम कर रहे थे। उसी तालाब के पास जहाॅ॑ भूतों का बाजार लगता था । खेत में काम करके वे घर आ गए । रात में जब वह खाना खा के जैसे ही सोने के लिए ऑ॑ख बंद किए,थोडा़ सा ऑ॑ख लग गई। फिर अचानक उठ गए । उसे याद आया कि वह अपना हंसिया खेत में ही भुल गया हैं। अब उस समय का आदमी बहुत गरीब था । धन कमाने की अपेक्षा बचाने में ज्यादा विश्वास रखते थे । वे तुंरत खाट से उठ गया । घर के आंगन में आ कर देखा तो कूंप अंधेरा था ।उसने अनुमान लगाया तो उसे लगा कि रात आधी हो गई है । अब क्या करे !! सोच में पड़ गए । भूतों का पहर आ गए हैं,,,शायद..। उस समय के हिसाब से हंसिया भी बहुत कीमती थी । फिर वे कुछ सोचे और घर से निकल गए। रात गहरी हो गई थी । बजरंग बली का नाम लेते हुए ,आगे बढ़ते गए । कई प्रकार की आवाजें आ रही थी,,, सुनसान रास्ते...,चलने में उसे भी डर लग रहा था । मरघट के पास जाने पर उसे अजीब सी आवाजें सुनाई देने लगी,,!

लेकिन दादा जी को इस की परवाह कहाॅ॑ !! उसे तो अपने हसिये की चिंता थी । अपने खेत चले गए । खेत में हसिया ढूंढा,,,लेकिन हंसिया नहीं मिला । उधर भूतों की आवाजें आ रही थी। शायद ! भूतों का बाजार लगा था। उसने सोचा क्यों ना आया हूॅ॑ तो भूतों का बाजार ही कर लूँ। किसी औरत को भूतों ने खाया होगा तो उसके गहने जरुर मिल जायेगा ।यही सोच के उसने अपने सारे कपड़े उतार दिए और एक जगह छिपा के रख दिया । मरघट के राख अपने शरीर में चुपड़ लिए और भूतों के बाजार में शामिल हो गए।भुत बहुत डरावने थे,किसी के सिर पीछे थे, तो किसी के मुॅ॑ह से खून टपक रहे थे।  कोई ह ह ह ह.. कह रहे थे ,तो कोई कराह रहे थे। कोई पेड़ के फूनगी में बैठें दादा जी को दांत दिखा रहे थे।दादा जी ने भी अपनी दांत दिखा के उसे खीसोर देते । वह भी भूतों की तरह हरकत करते ,जिससे उसे कोई भुत पहचान नहीं पाएं । बाजार में ठेला -पत्थर बिक रहे थे । कुछ जगह मानव शरीर के अंग के लोथडे़ भी हड्डीयों में टंगे थे।ढेरों गहने बिक रहे थे लेकिन दादाजी जैसे ही हाथ से पकड़ने की कोशिश करते, हाथों में कुछ नहीं आते थे ।

तभी दादाजी को कुछ भुत नाचते हुए दिखें । जो टेरे..टेरे...टेरे कह के नाच रहे थे । वहाॅ॑ जा के देखा तो उसका हसिया था।दादाजी बहुत खुश हो गए । भुत हंसिया को देखते , हसिया का टेढापन समझ नहीं आ रहे थे शायद !! और एक- दुसरे की ओर हाथों में उछाल देते । वे भी भूतों के साथ नाचने लगे ।भुत हंसिया से खेल रहे थे । बहुत देर तक नाचने के बाद भी हसिया हाथ नहीं आ रहा था । तभी एक भूत ने कहा-मुझे मानव का गंध आ रहा है । अब तो दादा जी बहुत डर गए ।अब क्या होगा..?सभी भुत एक दूसरे को देखने लगे । दादा जी तो बुरे फंसे,अब क्या करे..? दादा जी का पसीना छुटने लगे। भागने ही वाला था,तभी एक भुत ने कहा-अरे ! नहीं,कल मैने एक गांव के मुखिया को खाया था ।उसी का गंध है और सभी भुत फिर से नाचने लगे। बड़ी मुश्किल के बाद हसिया दादाजी के हाथ आया । दादाजी हंसिया पाते ही तेज रफ्तार से अपने कपडे़ की ओर भागा । जल्दी से कपड़ा उठाए और नंगा ही हांफते हुए बस्ती आ गए । कपडे़ पहने ,और घर आ के आराम से सो गया।"

बच्चे एकदम से चुप हो गए । उसके पास का माहौल भी अब डरावने महसूस होने लगे थे ।  बच्चे गनपत के पास ही चिपकने लगे । मानों वे डर गए हो ।

तभी उसके पास बैठा सरजू ने गनपत को टोका । बच्चें को डराते हो । और बच्चों को घर पहुंचा दिया । यह समझाते हुए कि ये भूत -ऊत  कुछ नहीं होते हैं ,जा आराम से सोना ।गनपत तुम्हें डरा रहा था ।और उसके पास आ कर कहाॅ॑- '''बिना मतलब के बच्चों के सामने ऐसी कहानी कोई कहते है। जिसके कोई मायने न हो। क्या प्रभाव बच्चों पर पड़ेगा,,?""

सरजू ऊंचे कद-काठी ,गठीले शरीर वाला व्यक्ति था ।धोती-कुर्ता पहनता था । जो उस पर खुब जजता था ।बात को रोकते हुए गनपत ने कहा-''घर से निकलते नहीं डरपोक,आठ बजे रात में ही सो जाते हो । पानी-पेशाब के लिए अपनी पत्नी को साथ में उठाते हो। शर्म नहीं है तुझे ।''

गनपत को बहुत बुरा लगा । उसने कहा-''ज्यादा बात मत कर ,अभी मैं जहाॅ॑ जाऊंगा ना , तुम नहीं जा सकते ।"

''कहाॅ॑ जा सकता है ? रात के इतना अंधेरा है। डर के मारे कही तुम्हारा धोती गिला ना हो जाए ।" इतना कह के हंसने लगे।

''चुप , रे ! बोल कहाॅ॑ जाना हैं?तु जहाॅ॑ भेजेगा ,मैं वहाॅ॑ जा सकता हूँ। लगा ले शर्त।"

गनपत कुछ देर सोचा फिर बोला-''मरघट जा सकता है...।वहाॅ॑ जा के एक खूंटा गडा के आ सकता है !"

''हां'',चल ,एक हजार की शर्त लगी।"

''हो गया" ।दोनों हाथ मिलाएं ।'' लेकिन बारह बजे के बाद जाना हैं"। दोनों राजी हो गए ।अभी तो आठ-नौ बजे थे ।गलियों में इक्का-दुक्का आदमीयों का हलचल था।बारह बजने से पहले सरजू एक लकड़ी का खूंटा लाया । उसे उसने सामने की ओर से पतला छिल दिया । उसे गड़ाने के लिए औजार रखें। कुछ देर तक बात किए । एक -डेढ़ घण्टा के बाद सरजू ने कहा-''अब मैं जाता हूँ"

''जा सकते हो" गनपत ऐसे बोले, जैसे वो अभी से शर्त हार रहे हो ।

गलियाॅ॑ वीरान था । कुत्ते न जाने किसे देख कर भौंक रहे थे।रात में जानवर इंसानों की परवाह कम करते हैं। एक कुत्ता सरजू को सुंधते हुए उसके पैरों के पास आ गया । जिसे वे अंधेरे में नहीं देख पा रहा था । अचानक से देखने की वजह से जी भर डर गया।''येयययय...हट,हट..चल..भा अ अ..ग"।सरजू अब अपनी ही परछाई से डरने लगा । अपने आप को समझाते-नहीं भुत जैसी कोई चीज नही होता ..। बीच-बीच में भगवान का नाम लेते । जल्दी- जल्दी चलने लगा । तभी एक चिड़िया उसके सामने से फूर्ररर् से उड़ गई । और वे सहम गए ।ये क्या था !! इतने रात को चिड़ियां । उल्लू होगा या फिर चमगादड़,,, जो भी हो मुझे क्या...! मुझे तो बस ये खूंटा गड़ाना है। ये मरघट भी कितने दूर में हैं। ये कौन सा जानवर है। ऑ॑खें  बस दिख रहा हैं,,! मुझे देखकर भी भाग नहीं रहा है सरजू वहीं खड़ा हो गया । दो चमकते ऑ॑खें बस दिखाई दे रहा था।हा हहहह...भा अअअग..चल । डर में आवाज भी गलत निकल रहे थे । जमीन को छुए तो वे जानवर भागे ।शायद ढेला उठा के मारेगा, सोच के । डरते-डरते मरघट पहुंच गए । जल्दी-जल्दी चलने की वजह से धोती कुछ ढीला महसूस हो रहा था । बीना समझे ही धोती को एक गांठ बांध दिया । और बैंठ के खूंटा ठोकने लगे । अच्छे से गड़ा देता हूँ , कही उखड़ न जाय । गनपत का कोई भरोसा नहीं है,उखड़ जाएगा तो मानेंगे नहीं । चलों! गड़ गया । जल्दी यहां से जाना हैं। जैसे ही पलटे,उसे ऐसा महसूस हुआ कोई उसके धोती को पीछे से खीच रहा है। हवा तेज चलने के बावजूद भी सरजू का पसीना निकलने लगा। ये क्या है..? कौन पकड़ लिया...? फिर कोशिश किए ,फिर भी नहीं छोड़ें । अजीब सुन्नता शरीर में चढ़ने लगी  । दिमाग की सोचने की क्षमता कम हो गई थी । पीछे मुड़कर देखूंगा तो ये भुत मेरे ऊपर चढ़ जाएगा । जोर से खिंचने की कोशिश किए  ,लेकिन, खींच नहीं पा रहा था । मारे डर के सरजू जमीन पर गिर गया। पैर खुरचते हुए कोशिश करने लगे । पीछे पलट के देखा तो सफेद -कोई चीज उसके ओर उछलते हुए आते दिखाई दिए।अब तो नहीं बचुंगा । बचाओ कोई..!बचाओ !.,बचाओ...! की चीख निकलने लगी । पीछे मुड़कर देखा तो हवा में उड़ते हुए भुत उसके ऊपर चढ़ गया । सहसा उसकी चीख बंद हो गई। सांसे रूक गई । उस वीरान जगह अब शांत हो गई थी ।

इधर गनपत देर रात से सोने की वजह से उसकी ऑ॑खें देर से खुली । अभी तक सरजू का पता नहीं है। जल्दी से उठ के मरघट की ओर गया । वहाॅ॑ कुछ लोग भीड़ लगाए खडे़ थे।करीब जा के देखा तो उसके पैरों तले से जमीन खिसक गया ।सरजू की ऑ॑खें खुली थी, गर्दन पीछे की ओर मुडे़ , मुंह खुले, प्राण निकल चुके थे। शायद भागने की बहुत कोशिश किया था । पैरों से खुरचने के निशान बने हुए थे। एक सफेद बोरी पैरों में फंसा था । धागे पैर में फसने की वजह से अभी भी हवा में उड़ रहे हैं। खूंटे में धोती का एक छोर धंस गया था।

गनपत सोचने लगा,अरे! ये क्या हुआ । मेरे भाई यदि मैं जानता कि ऐसा हो जाएगा तो शर्त ही नहीं लगाता । खुद हार जाता।और सोचते-सोचते सिर पकड़ के वही बैठ गया।

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--- राजकपूर राजपूत ''राज"           

 

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