गांव की बेटी - Village Daughter Story सोनाली एक शिक्षित और संस्कारी लड़की थी, जिसका पालन-पोषण एक छोटे से गांव में हुआ था। उसने गांव के ही स्कूल से पढ़ाई की और पारंपरिक ग्रामीण वातावरण में पली-बढ़ी थी। गांव की सादगी, संस्कार, और पारिवारिक मूल्यों ने उसमें सरलता और संयम का भाव विकसित किया था।
किंतु उसकी शादी आदित्य नाम के एक लड़के से हुई, जो एक बड़े शहर में रहता था और वहीं का आधुनिक जीवन जीने का आदी था। आदित्य का पालन-पोषण शहरी वातावरण में हुआ था और उसने कभी भी गांव की धरती पर कदम नहीं रखा था। उसके लिए गांव की ज़िंदगी, वहाँ की परंपराएँ और रीति-रिवाज़ अनजाने और कुछ हद तक अजीब थे।
Village Daughter Story
शादी के बाद सोनाली को शहर के तेज़ रफ़्तार जीवन से तालमेल बिठाने में कठिनाई होने लगी। ऊँची इमारतें, भीड़-भाड़ वाली सड़कें, और मशीनों से चलता जीवन उसके लिए बिल्कुल नया था। वहीं, आदित्य को भी सोनाली की सादगी और उसके पारंपरिक विचार पुराने ज़माने के लगते थे।
जब भी सोनाली कुर्सी पर बैठती, आदित्य चुपचाप उसके सामने ज़मीन पर बिछे डाइल्स पर बैठ जाता और उसे एकटक उसे देखता । उसका यह व्यवहार सोनाली को असहज कर देता — जैसे कोई अनकहा बोझ मन पर उतर आता हो।
आदित्य मुस्कराकर कहता, "मैं चाहता हूँ कि तुम इस घर में वो सम्मान और हक महसूस करो, जो तुम्हारा है। लेकिन तुम हो कि मेरे सामने कुर्सी से तुरंत उठ खड़ी होती हो।"
सोनाली की आँखों में एक झिझक सी तैर जाती। वह धीमे स्वर में कहती, "इस घर में और भी लोग हैं... और आपके सामने बैठना... मुझे ठीक नहीं लगता। मैं भी आपको उतना ही सम्मान देती हूं,, बस शायद हम उसे अलग-अलग ढंग से समझते हैं।"
उसके शब्दों में सम्मान था, पर आदित्य की आत्मा में जैसे कुछ चुभ जाता है ।
अपनी भावनाओं को बार-बार टकराते देखना उसे बेचैन कर देता है। हर बार जब उसकी बातों को टाल दिया जाता, वह भीतर से टूटने लगता — एक ऐसी पीड़ा से, जिसे वह चाहकर भी कह नहीं पाता था।
जब आदित्य पहली बार सोनाली के साथ अपने ससुराल पहुँचा, तो उसने गांव की एक अनोखी दुनिया देखी — रिश्तों से सजी-बसी, आत्मीयता की खुशबू से महकती।
गांव की पगडंडियों पर कदम रखते ही सोनाली का व्यवहार बदल गया। वह मानो किसी और ही रूप में ढल गई — श्रद्धा, अपनापन और संस्कार से लिपटी एक सजीव मूर्ति बन गई।
कभी किसी चाचा को झुककर प्रणाम करती, कभी गाड़ी में बैठे-बैठे हाथ जोड़ती। कोई बड़ी मां थी, तो कोई बड़ी भाभी। कोई बड़े भइया, तो कोई मंझले पापा। हर दूसरा चेहरा उसके लिए कोई न कोई रिश्ता था।
आदित्य थोड़ी देर देखता रहा, फिर तंज कसते हुए बोला,
"ऐसे तो तुम्हारा पूरा गांव ही रिश्तेदार है!"
सोनाली ने उसकी ओर देखा, आँखों में सादगी और चेहरे पर हल्की सी मुस्कान लिए सिर्फ एक शब्द कहा —
"हाँ..."
उस "हाँ" में न कोई तर्क था, न कोई स्पष्टीकरण। बस एक गहराई थी — जड़ों से जुड़े होने की, रिश्तों को जीने की, और उस मिट्टी से प्रेम की जहाँ उसने जीवन सीखा था।
लेकिन आदित्य को यह सब देखकर कुछ अटपटा और अपमानजनक सा लगा।
वह मन ही मन सोचने लगा, "यह सबको क्यों प्रणाम कर रही है? क्या ये सारे रिश्ते सच में इतने ज़रूरी हैं?"
ससुराल में एक अवसर पर वह यह बात कह भी बैठा,
"क्या हर किसी को प्रणाम करना ज़रूरी है? क्या ये सभी रिश्ते वास्तव में काम के हैं?"
सोनाली ने शांत स्वर में मुस्कराते हुए उत्तर दिया —
"एक पौधे की कई जड़ें होती हैं, और उन्हीं से वह धीरे-धीरे एक विशाल वृक्ष बनता है। कौन-सी जड़ कब सहारा दे जाए, कोई नहीं जानता। रिश्ते भी कुछ ऐसे ही होते हैं।"
सोनाली के इस जवाब को सुनकर आदित्य भीतर ही भीतर जलने लगा । वह उसे कुछ कह नहीं पा रहा था । उसकी समझदारी उसे ग्वारी सी महसूस होने लगी ।
जिसे गांव की ग्वार लड़की समझता था वह तो बातों से उसे हराते हैं ।
आदित्य जब कुछ समय बाद अपने शहर लौटा, तो बहुत कुछ बदल चुका था — उसके व्यवहार भी, और शायद वह खुद भी। उसके सोचने का तरीका पहले जैसा न रहा। थोड़ी सी उग्रता और जिद्दी । अब वह सोनाली से वो सब करवाना चाहता था, जो उसे सही और अच्छा लगता था।
सोनाली को उसने कई बार कहा — "चलो, आज मेरे दोस्त की बर्थडे पार्टी है, सब मिलेंगे, अच्छा लगेगा।" कभी कहता, "एक रिसेप्शन है, बहुत सारे लोग होंगे, तुम्हें सबसे मिलना चाहिए।" वह चाहता था कि सोनाली हर किसी से खुलकर मिले, मुस्कुराए, हाथ मिलाए,उन लोगों के साथ नाचे गाए, जैसे सब करते हैं। कुछ रिश्तों से तो गले मिलाने तक की बातें करते थे ।
लेकिन सोनाली का स्वभाव कुछ और था। वह थोड़ी संकोची थी, या शायद अपनी सीमाओं को लेकर सचेत। उसे भीड़-भाड़ से, औपचारिक दिखावे से, जबरन सामाजिक होने से परहेज़ था। कुछ बातें आदित्य के उसे सही लगती मगर वो ऐसी दुनिया की नहीं थी ।
वह बार-बार मना करती, समझाने की कोशिश करती, पर आदित्य अब उसे सुनता नहीं था — बस चाहता था कि सोनाली वैसी बन जाए, जैसी दुनिया उसे देखना चाहती है। सबसे अत्याधिक आधुनिक और प्रभावशाली ।
सोनाली के मन में एक गहरी सोच उभरती है। वह यह सवाल करती है कि क्या प्रेम का मतलब सिर्फ समझौता करना रह गया है? क्या अब उस आत्मीयता और अपनेपन की जगह पर ज़बरदस्ती और सामाजिक दबाव ने ले ली है? उसे यह भी लगता है कि शायद अब लोग व्यक्तिगत पसंद और रुचियों की कद्र नहीं करते, और उन्हें समाज या दूसरों की अपेक्षाओं के हिसाब से ढालने की कोशिश करते हैं। वह यह भी सोचती है कि क्या अब दुनिया ऐसी हो गई है, जहाँ सादगी, अनुशासन और मर्यादा से भरे जीवन को हीन या पिछड़ा हुआ समझा जाने लगा है? शहरों के लिए ठीक हो सकता है । लेकिन उसके लिए अनुचित है ।
पार्टी में लोग पीते हैं, नाचते हैं, गाते हैं , ये सब उनकी व्यक्तिगत रूचियां है । जो अपनी धून में किसी की परवाह नहीं करते हैं । इसलिए सबसे हाथ और गले मिला लेते हैं । जबकि आत्मिकता नहीं होती है ।
सोनाली के भीतर यह बात हर बार एक टीस की तरह उभरती जब आदित्य उससे आग्रह करते कि वह पुरुषों से हाथ मिलाए, उनसे गले मिले। उसके लिए यह सब सहज नहीं था — उसकी परवरिश, उसका संकोच, सब कुछ मानो एक साथ उसके मन में उमड़ आता। वह भीतर से असहज हो उठती, पर शब्दों में कुछ कह न पाती।
उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ था। दिन भर आदित्य मौन ओढ़े रखा, चेहरे पर क्षीण क्रोध की छाया लिए वह सोनाली से कटी-कटी रही। लेकिन रात होते-होते आदित्य का संयम टूट गया। वह आवेश में भर उठा — उसे लगा जैसे यह ठंडापन अब असहनीय होता जा रहा है।
उसके दोस्त बार-बार उससे यही कहते कि उसकी पत्नी ही उससे खुलकर नहीं मिलते, और यही बात उसे भीतर तक सालती थी।
"तुम तो ठहरी एक गंवार, देहात की मिट्टी से सनी, परंपराओं की जड़ में बसी स्त्री — जो खुली सोच और स्वतंत्र विचारों को स्वीकार ही नहीं सकती। सोचता हूं, इस बंधी-बंधाई सोच के साथ हमारी ज़िंदगी आगे कैसे बढ़ेगी?"
यह कटाक्ष सोनाली की आत्मा को चीर गया। वह चुप रहना चाहती थी, मगर शब्द भीतर ही भीतर उबलते रहे — और अंततः बह निकले।
"अगर साथ नहीं चल सकती, तो चलो, अलग राह चुन लेते हैं। मारने-पीटने या बेवजह के विवाद से कहीं बेहतर है, शांति से त्याग करना — ताकि कम से कम इंसानियत तो बची रहे। मगर तुम कैसा प्रेमी हो, कैसा पति — जो अपनी ही पत्नी को किसी और की बाहों में धकेलने की बात करते हो? शायद तुम्हारे भीतर प्रेम का अभाव है…"
वह क्षणभर रुकी, फिर धीमे लेकिन दृढ़ स्वर में कहा —
"प्रेम तो मुझमें है — तुमसे कहीं अधिक। तभी तो मैं तुम्हें वही अधिकार देना चाहती हूँ, जिसे मैं स्वयं जीती हूँ। एक स्त्री का समर्पण तुम्हारी दृष्टि से ओझल है। तुम्हारी हर आकांक्षा केवल भौतिक सुख की ओर झुकी हुई है, जिसमें तुम आनंद की खोज करते हो। उसमें मैं तो समर्पित हूँ, परंतु तुम मुझे गंवार समझते हो।
जिस मानसिक और शारीरिक सुख की प्राप्ति एक स्त्री को अपने पति से होती है, वही विवाह का उद्देश्य है — न कि किसी बाहरी पुरुष के स्पर्श में उसे तलाशने का प्रयास। यह सोचकर आश्चर्य होता है कि कोई पुरुष इतना पतित कैसे हो सकता है!जो कहें कि पर पुरुष के नजदीक जाने के लिए । कैसे स्वीकार कर सकता है?"
"क्या ऐसे लोग शिक्षित और सभ्य नहीं हैं? जैसे तुम स्वयं को समझते हो?"आदित्य ने कटाक्ष करते हुए भी कहा, जैसे उसकी बातों का कोई असर नहीं हुआ है ।
"शिक्षा और समझदारी में अंतर होता है। 'शिक्षित' होना मात्र एक डिग्री पाने से सिद्ध नहीं होता, और 'समझदारी' के कोई निश्चित मापदंड नहीं होते। यह एक महीन रेखा है, जिस पर चलने वाले हर क्षण अपनी आत्मा को जागृत रखते हैं। जैसे पलकें — जो आँखों के सामने आने वाली हर बुरी चीज़ से रक्षा करती हैं। यह एक स्थापित चेतना है, जो बिना किसी प्रयास के सक्रिय रहती है।
यदि किसी को कुछ कहना या समझाना पड़ जाए, तो समझ लो वह अभी पूर्ण रूप से न तो शिक्षित है और न ही सभ्य।"
"तुम रो रही हो... तुम कमज़ोर हो,"
आदित्य ने शांति और संजीदगी से कहा — स्वर में न कोई कठोरता थी, न ही व्यंग्य का कोई छायाचित्र।
"हाँ, रो रही हूँ... तुम्हारे उन असंवेदनशील विचारों से घायल होकर।
तुम संसार की दुहाई देते हो — उस संसार की, जो स्वयं जीवंत नहीं है।
वह राहें, जिन्हें सियासी पंथों और धूर्त चालकों ने जबरन गढ़ा है —
जहाँ मनुष्य को मात्र एक यंत्र बना दिया गया है।
जिसमें जितना डाला जाए, वह उतना ही दोहराए —
स्वयं के दृष्टिकोण का कोई स्थान नहीं।
धत्त्!
कल मैं चली जाऊँगी...
जबरन के ये बंधन, ये संबंध — अब नहीं सुहाते।"
आदित्य क्षणभर मौन रहे — जैसे शब्दों को परख रहे हों,
फिर बोले — अब एक समझ की आभा उनके स्वर में थी:
"तुम्हें कहीं जाने की आवश्यकता नहीं,
शायद — हाँ, शायद — मुझे ही बदलने की ज़रूरत है।
आज से मैं तुम्हें रोकूँगा,
मात्र उन बातों पर जहाँ तुम सचमुच भटक रही हो,
ना कि इसलिए कि तुम मेरी बनाई बाहरी दुनिया को स्वीकार नहीं करतीं।"
आदित्य की आँखों में कुछ ठहरने लगा था —
वह समझने लगा था कि प्रेम केवल अधिकार नहीं, सम्मान भी है।
टोकना और रोकना वहीं तक उचित है जहाँ तक वह सीमाओं का अतिक्रमण न करे।
सोनाली ने कभी मुझसे नहीं कहा कि मैं उसके जैसा जीवन जिऊँ —
उसका यही बड़प्पन है, उसकी यही गहरी समझ है।
आदित्य अब आत्मचिंतन की डगर पर था।
और धीरे-धीरे वह चिंतन उसके व्यवहार में उतरने लगा —
शब्दों से नहीं, स्वभाव से प्रेम की परिभाषा गढ़ी जाने लगी।
प्रेम अब शब्दों का मोहताज नहीं रहा; वह स्वभाव की नमी से परिभाषित होने लगा है।
बहुत दिनों के मौन के बाद, सोनाली ने धीमे स्वर में कहा —
'अब तुम मुझे अपनी दुनिया की चौखट पर भी क्यों नहीं ले जाते?'
उसने मुस्कराया, और कहा —
'ऐसा कुछ भी नहीं है, गाँव की बेटी।
रिश्तों में कभी-कभी हल्का-सा खिंचाव ज़रूरी होता है,
ठीक वैसे ही जैसे पुरानी चीज़ों से ज़ंग छुड़ाने को रगड़नी पड़ती है।
तू तो बस यूँ ही... अपनी मासूम समझदारी में उलझी रहती है।'"
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