रिश्तों का मौन दर्द The Silent Pain of Relationships Story in Hindi ममता के पिताजी का स्वास्थ्य लंबे समय से ठीक नहीं था। हलचल तो कर लेते थे लेकिन पहले जैसी नहीं । उम्र की ढलती साँझ में उनकी बस एक ही अभिलाषा शेष रह गई थी — अपने बच्चों को सुरक्षित और सुखी देखना। बेटों की शादियां हो गई हैं, बची है तो एक बेटी । वे अक्सर कहा करते थे, “बेटी, जब तक तुम्हें हँसते-खिलखिलाते और अपने घर-आँगन में रच-बसते न देख लूँ, इस मन को शांति नहीं मिलेगी।”
बेटी के प्रति उनका स्नेह कुछ ऐसा था कि वे हर आने-जाने वाले रिश्तेदार या परिचित से कहते, “मुझे अपनी बेटी की शादी करनी है। कोई अच्छा-सा, सच्चा-सा लड़का बताना। जीते-जी बेटी की शादी में चावल-टीका दे दूँ, बस यही मन की अभिलाषा है।”
The Silent Pain of Relationships Story in Hindi
उसकी बेटी अत्यंत सीधी-सादी और निश्छल हृदय की थी। पिता की हर बात को वह आज्ञा समझकर मान लेती थी। "ममता" — नाम जैसे मधुर था, वैसा ही उसका स्वभाव भी कोमल और स्नेह से भरा था। उसके भोलेपन और निर्मल हृदय को देखकर पिता के मन में कभी-कभी भय समा जाता था कि कहीं यह छल-कपट से भरी दुनिया उसकी सादगी का लाभ न उठा ले।
कई कोशिशों और प्रतीक्षा के बाद आखिर एक अच्छा रिश्ता मिल ही गया। लड़का विनम्र था, मेहनती था और घर-परिवार की जिम्मेदारी निभाने वाला भी। जमीन - जायदाद पर्याप्त थी । उसके पिता का देहांत बहुत पहले हो चुका था; घर में केवल माँ, एक बहन और एक भाई थे।
जब ममता के पिताजी ने यह सब सुना, तो उनकी थकी आँखों में वर्षों बाद एक हल्की-सी चमक लौट आई। उन्हें लगा जैसे जीवन का सबसे बड़ा दायित्व अब पूरा होने जा रहा है — बेटी के सुखी भविष्य का सपना अब सच बनने वाला है ।
शादी हो गई। उसके पिताजी आश्वस्त थे यह देखकर कि दीलेश कितना व्यवहार-कुशल है। उसकी बातों में अपनापन महसूस होता है। छोटे-बड़ों के प्रति शिष्टाचार उसमें कूट-कूटकर भरा है।
शादी को एक वर्ष हो चुका था। ममता के पिताजी का स्वास्थ्य और अधिक खराब हो गया था। डॉक्टरों ने उन्हें किडनी का ऑपरेशन कराने की सलाह दी, जिसके लिए पैसों की सख्त ज़रूरत थी।
दामाद दीलेश एक सम्पन्न घर से था। उसे कोई रोकने-टोकने वाला भी नहीं था, इसलिए उसको लगा कि उसी से पैसे माँगना उचित होगा। धीरे-धीरे करके छूट देंगे ।
यह सुनकर दीलेश ने तुरंत "हाँ" कह दिया। मगर जब पैसे देने की बारी आई, तो ममता ने फ़ोन पर कहा –
“पिताजी, पैसे तो हैं, लेकिन घर में और भी कई काम हैं, जिन्हें बहुत पहले से करने का सोच रखा है। अभी दे देंगे तो बाद में दिक्कत आएगी। पैसे देने से मना तो नहीं कर रही हूँ, मगर...”
"यही बात दीलेश भी कह सकता था,"उसके पिता ने कहा।
"हाँ, लेकिन मैंने ही कह दी।"
उसके पिताजी तुरंत समझ गए कि बेटी-दामाद पैसों की मदद नहीं करना चाहते हैं। उन्होंने कुछ नहीं कहा, बल्कि यही सोचकर खुश हुए कि बेटी अब अपने घर-परिवार के प्रति ज़िम्मेदार हो गई है।
उन्हें संतोष था कि ममता अब अपने जीवन के निर्णय खुद ले रही है — भले ही उस निर्णय में उनके लिए जगह न हो।
बेटी से फ़ोन पर बातें होती रहती थीं, लेकिन बातों ही बातों से लगता था कि वह ससुराल में अत्यंत व्यस्त रहती है। सहसा फ़ोन रखने की बात कह देती थी, जिससे पिता अनेक अंदेशों से भर जाते थे।"
बहुत दिनों बाद ममता के पिता उसके आँगन में आए थे। बरसों की प्रतीक्षा मानो पल भर में पिघल गई। ममता के चेहरे पर उमंग की उजली लहर दौड़ गई थी। वह भावनाओं में डूबी, बचपन-सी चुलबुली हो उठी। पर तभी दीलेश की स्थिर निगाहों ने उसे जैसे बाँध लिया। वह सहसा ठिठक गई — उसकी मुस्कान कहीं खो गई, आँखों की चमक फीकी पड़ गई। क्षणभर में ही उसकी बातों का चपल स्वर सामान्यता की परत में ढँक गया।
पिता की आँखें सब कुछ पढ़ रही थीं — वह मौन होकर भी बेटी के मन के उलझे धागे सुलझा रहे थे।
दीलेश अब भी उतने ही विनम्र और संयत थे, पर ममता के भीतर क्या चल रहा था — यह कोई जान नहीं पा रहा था।
तभी पड़ोसी आँगन में आकर बैठ गए।
ममता ने मुस्कुराकर उनका स्वागत किया, “आइए चाची, बहुत दिनों बाद आई हो आप…”
बातों का सिलसिला अभी शुरू ही हुआ था कि भीतर उसके पिता के साथ बैठें दीलेश की आवाज़ आई —
“माँ भीतर हैं, चाची।”
आवाज़ में एक सूखी ठंडक और कड़क थी, जैसे किसी अदृश्य दीवार ने उस क्षण रिश्तों के बीच जगह बना ली हो।
ममता कुछ क्षण के लिए ठिठक गई। मुस्कान उसके चेहरे से ऐसे गायब हुई जैसे किसी ने दीपक की लौ पर फूँक मार दी हो।
उसने नज़रें झुका लीं, कुछ कहने की कोशिश की, पर शब्द गले में अटक गए।
फिर बिना कुछ बोले वह धीरे-धीरे भीतर चली गई — आँखों में हल्की नमी, कदमों में भारीपन।
पिता कमरे से यह सब देख रहे थे।
दिल के किसी कोने में एक टीस-सी उठी —
कितनी विनम्रता से दीलेश ने ‘चाची’ कहा था, पर उस विनम्रता में अपनापन नहीं था, केवल दूरी थी।
उन्हें याद आया कभी वही ममता उनके घर की हँसी हुआ करती थी, हँसी-ठिठोली चलती थी।
अब वही रिश्ता अजनबीपन में लिपट गया था।
आँगन में सन्नाटा उतर आया।
चाची धीरे से बोलीं, “बेटा, सब ठीक है न?”
दीलेश ने बस मुस्कराने की कोशिश की — “हाँ, सब ठीक है…”
और वह दूसरे कमरे की ओर चला गया। उस समय ममता के पिताजी अकेले थे। पड़ोसी ने उनसे भी पूछा — “गांव की तरफ सब ठीक है?”
“हाँ,” पिता ने जवाब दिया।
पड़ोसी बोली — “आपकी बेटी बहुत तकलीफ़ में रहती है। दीलेश और उसकी माँ के तानों ने उसे अंदर ही अंदर कठोर बना दिया है। बेटा तो माँ का गुलाम है। जो जैसा दिखता है वो वैसा नहीं है । अपनी बेटी और दामाद को समझा लेना। रिश्ते जोड़ने से पहले आस-पड़ोस में पता लगा लेना चाहिए था।” इतना कहकर वह चली गई।
ममता के पिताजी सोच में पड़ गए। किसी के माथे पर तो नहीं लिखा होता किसी का स्वभाव। व्यवहारिक रूप में ठीक ही लगता है । मगर भीतर...अब क्या किया जाए!
रिश्तों की गरमाहट कहीं पीछे छूट गई थी — केवल औपचारिक शब्द और ठंडी आवाज़ें बाकी रह गई थीं।
ममता अब अपने पिताजी के सामने आती तो उसके शब्द कम निकलते थे ।
वह घर का हाल-चाल पूछती, अपनी सखी-सहेलियों के बारे में हल्की-फुल्की बातें करती, लेकिन दीलेश के बारे में बस इतना कह पाती कि वह अच्छा है।
“ये सब क्या है, बेटी? मैं तो समझ रहा था कि तुम घर के फैसलों में हमेशा शामिल रहती हो। मगर… मुझे लगता था कि इस घर में तुम बहुत खुश हो। उस दिन पैसों के लिए मना दीलेश ने ही किया होगा ! फ़ोन करते समय भी टोकते होंगे । ”
ममता बस चुप रही। उसकी आँखें धीरे-धीरे नम हो गईं, और भीतर एक अनकही उदासी ने जगह बना ली।
"ये सब तो सियासत का खेल है । पर्दे के पीछे कुछ लोग अपनी चालें चलते हैं, वैसी ही । जो कुछ दीलेश अपने घर में तुम्हारे साथ करता है, वही वह दूसरों के सामने शालीन और अलग व्यवहार दिखाता है। उसे अपनी चालाकी समझदारी लगती होगी । जबकि धूर्तता है । अपने घर में कोई ऐसा करता है! वह तुमसे कितनी नफ़रत करता है । इसलिए ...चलो, बेटी, मैं तुम्हें एक नया, अलग और बेहतर जीवन दूंगा।ऐसी जिंदगी घुटन है । "
ममता कुछ नहीं बोली। उसके चेहरे पर एक अजीब-सी शांति थी, मानो वह ऐसे जीवन की आदी हो चुकी हो। कभी वह अपने छह माह के मासूम बच्चे को देखती, जिसकी आँखों में अनकही मासूमियत थी, और कभी अपने पिता को, जिनकी साँसों में अब कमजोरी उतर आई थी।
पिता ने भारी स्वर में कहा,
"तुम्हारा ये फैसला… मूर्खतापूर्ण है, ममता। किसी की खुशी के खातिर ही दीलेश तुम्हें दुःख पहुंचा रहा है । "
ममता की आँखें भर आईं। शायद वह जानती थी । उसने धीमे लेकिन दृढ़ स्वर में कहा,
“ मैं कहीं नहीं जाऊँगी, पिताजी। सब धीरे-धीरे ठीक हो जाएगा।”
"यह विश्वास है... उम्र यूँ ही गुजर जाएगी। ये सब दीलेश से कहना ठीक रहेगा । मेरे साथ जाओगी तो चार दिन में सब ठीक हो जाएगा । " पिताजी ने धीमे स्वर में कहा।
"नहीं, वह नहीं मानेगा," ममता ने सिर झुका लिया। शायद , कई बार बोल चुकी है दीलेश को ।
"अपनी समझ को ही सबसे सही मानता है। कहने से बस विवाद होगा... और मेरे प्रति उसका व्यवहार और भी कठोर हो जाएगा — जो मैं नहीं चाहती।"
यह कहते-कहते उसकी आवाज़ भर्रा गई, और शब्द सिसकियों में बदल गए।
पिता कुछ देर तक उसे निहारते रहे — एक ओर अपनी असहायता, दूसरी ओर बेटी की विवशता को महसूस करते हुए।
फिर उन्होंने चुपचाप नज़रें झुका लीं।
अब शब्दों की जगह केवल मौन था — ऐसा मौन, जिसमें हार, पीड़ा और प्रेम — सब कुछ एक साथ घुल गए थे।
ममता जब अपने पिता को छोड़ने के लिए घर से बाहर आई,
तब साथ में दीलेश भी था। जो जाते हुए पिताजी को कह रहा था—
"पिता जी, फिर आइए। अच्छा लगता है । "
मन ही मन ममता के पिता ने सोचा—
कितना अपनापन, मगर कितना दिखावटी।पिता जाते समय सोचते रहे — क्या ममता सच में कभी खुश रहेगी, या उसने बस समझौता कर लिया है?
जवाब हवा में गूँजता रहा — मौन हो कर।”
मेरी बेटी बोल नहीं पाती , और मजबूरी में गलत जिंदगी जीने को विवश है।
ममता के पिता धीरे-धीरे गली के मोड़ पर ओझल हो गए।
पीछे रह गई तो केवल खामोशी,
और ममता के दिल में वह अनकही याद,
जो हमेशा उनकी और उनके परिवार की नाजुकता की गवाही देती रही।
रात गहरी हो चुकी थी।
दीलेश ने देखा — ममता बच्चे को गोद में लिए खिड़की के बाहर निहार रही थी।
चाँदनी बाहर ठहरी हुई थी, पर उसकी आँखों में एक अजीब-सी नीरवता थी।
दीलेश पास से गुज़रा, पर उसकी ओर देखे बिना ही आगे निकल गया।
उसकी चाल में संयम था, किन्तु उस संयम के भीतर एक गहरी दूरी थी।
वह दूसरे कमरे में गया, और फिर वापस आ कर पलंग पर लेट गया।
कुछ देर तक मौन पसरा रहा — फिर उसने धीमे स्वर में कहा,
“पिताजी ने तुम्हें समझाया तो होगा — ससुराल में कैसे रहना है।”
ममता ने उसकी ओर देखे बिना उत्तर दिया,
“नहीं, वे क्या कहते? तुम्हारा व्यवहार ही सब कुछ कह देता है।
हॉं ,तुम्हारी माँ तो निश्चय ही प्रसन्न होती होंगी —
तुमने उन्हें दिखा दिया है कि तुम पत्नी की गुलामी नहीं करते।”
दीलेश का स्वर कुछ कठोर हो उठा —
“तुम मेरी माँ को हर बात में क्यों घसीटती हो?
जबकि वे तो तुम्हारा नाम तक नहीं लेतीं।”
"तुमने मेरे पिताजी का नाम क्यों लिया । क्या मैं यहां पर किसी को परेशान करती हूं । हां, तुम्हारी मां को बोलने की जरूरत ही नहीं है । क्योंकि उसका बेटा तो है ना । जो उसके आदेशों का पालन करता है । बिना सोचे समझे । "
दीलेश, ममता के व्यंग्य भरी बातें सुन चुप हो गया । उसे कहना तो बहुत कुछ था मगर कहा नहीं । शायद ! डर था कि कहीं बात बिगड़ न जाए । चुपचाप करवट बदल ली ।
ममता का
बेटा छह महीने का था —
उसकी मासूम आँखों में उसे एक अनकहा विश्वास दिखता था,
जो कहता था — “माँ, तुम मजबूत हो।”
उसी पल वह रो पड़ती। शायद वही उसका एकमात्र सहारा था, जो उसे जीने की वजह देता था ।
एक शाम वह रसोई में काम कर रही थी। दीलेश की माँ ने धीमे से कहा —
“बेटा, औरत को ज़्यादा सोचने की आदत नहीं डालनी चाहिए। घर संभालें, सवाल मत पूछे ।”
ममता ने मुस्कुरा दिया,जैसे उसने सब सुन लिया,
पर कुछ भी महसूस नहीं किया।
कभी उसके भीतर एक स्वर उठता —
“क्यों न सब छोड़ दूँ, अपने पिताजी के पास लौट जाऊँ?”
फिर बच्चा उसकी गोद में आ जाता — और वह सोचती,
“नहीं, उसे टूटे हुए घर का हिस्सा नहीं बनने दूँगी।”
धीरे-धीरे उसने बोलना कम कर दिया। हर बात पर सिर हिलाना, हर सवाल पर मुस्कराना — यही उसकी दिनचर्या बन गई। घर में सब कहते,
“ममता कितनी समझदार है, कितनी शांत।”
पर कोई नहीं जानता था — वह शांत नहीं, बस थक चुकी है।
एक दिन पिता का फ़ोन आया — आवाज़ कमजोर थी, पर स्नेह से भरी।
“बेटी, कैसी हो?”
“ठीक हूँ, पिताजी।”
“सच?”
“हाँ… ठीक हूँ।”
उसके गले में कुछ अटक गया। वह जल्दी से बोली —
“दीलेश बुला रहे हैं, बाद में बात करती हूँ।”
और फ़ोन रख दिया।
फ़ोन रखते ही उसने चेहरा तकिए में छिपा लिया।
आँसू बह निकले , बिना आवाज़ के, बिना शिकायत के।
इधर पिताजी समझ गए । बेटी के साथ क्या हो रहा है ?
कमरे में धुंधली रोशनी फैली थी । दीलेश पलंग पर बैठ कर पैसे गिन रहा था । वह देर रात तक घर के हिसाब - किताब में डूबा रहता,पर सच यह था —आज वह काम नहीं कर रहा था, भाग रहा था। खुद से, अपने रिश्ते से, अपने निर्णयों से।
कभी-कभी वह ममता को देखता —धीरे से बच्चे को सुलाती हुई, बिना कुछ बोले, बस घर की चीज़ें ठीक करती हुई।उसे लगता,
“यह वही ममता है, जिसने शादी के दिन मेरी आँखों में मुस्कराकर कहा था — ‘अब सब कुछ अपना है।’
फिर क्यों आज ये मुस्कान अजनबी लगती है?”
वह समझ नहीं पाता था —कहाँ गलती हुई। क्या उसने कम बोला? या ज़्यादा सोच लिया?
दीलेश के भीतर बहुत कुछ दबा था।
उसके पिता का देहांत तब हुआ था जब वह कॉलेज में था।
घर की ज़िम्मेदारियाँ, माँ की उम्मीदें, बहन की शादी —
सबकुछ जल्दी-जल्दी करना पड़ा।
उस दिन के बाद उसने एक आदत बना ली — भावनाएँ नहीं दिखानी हैं।
उसी आदत ने धीरे-धीरे उसे ठंडा बना दिया । लोग कहते — “दीलेश बहुत समझदार है।”
पर कोई नहीं जानता था कि वह भीतर से कितना खाली है।
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ममता उसे अपनापन चाहती थी,और पर रिश्ते, स्पर्श से बनते हैं।
वह समझ नहीं पाया कि उसकी संयमित चुप्पी ममता के लिए उदास का कारण और दूरी बन चुकी थी।
कभी वह सोचता —
“वह बहुत संवेदनशील है, ज़रा-सी बात पर दुखी हो जाती है।”
पर शायद वही संवेदनशीलता उसकी असली ताकत थी, जो अब धीरे-धीरे उसके भीतर बुझ रही थी।
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एक रात माँ ने कहा,
“बेटा, औरत को बस घर सँभालने दो। ज़्यादा सिर मत चढ़ाओ।”
वह कुछ नहीं बोला।
पर उस रात उसे पहली बार लगा —
शायद उसने माँ की बातों में कहीं ममता को खो दिया।
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उसके
पिता की बीमारी के समय उसने सचमुच मदद करना चाहा था,पर माँ ने रोक दिया —
“अभी बहन की शादी बाकी है। जो ज़रूरी है, वही पहले।”
वह जानता था कि ममता को बुरा लगेगा। फिर भी वह चुप रहा। शायद उसे लगा, समय सब ठीक कर देगा।
पर समय ने बस उनके बीच और दूरी डाल दी।
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कभी-कभी वह बच्चा देखकर मुस्कराता।
फिर ममता की आँखों में झाँकता —वहाँ जो सन्नाटा था, वह उसे डरा देता। वह कुछ कहना चाहता,पर हर बार शब्द गले में अटक जाते।
“कैसे कहूँ कि मैं भी अकेला हूँ?” मैं बस थका हुआ हूँ?”
वह उसके पास जाता, पर ममता बस मुस्कराकर बच्चे को सुला देती और खुद सो जाती ।
उस मुस्कान में एक अनकहा संदेश होता —
“अब देर हो चुकी है।”
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एक दिन उसने ममता की डायरी में एक पन्ना देखा —
उसी पर लिखा था:
“वह मुझे बुरा नहीं लगता, बस अनजान लगता है।
और अजनबीपन सबसे बड़ी सज़ा है।”
वह देर तक उस पन्ने को देखता रहा।
शब्द धुंधले होते गए।
उसने पहली बार महसूस किया कि वह जीतते-जी हार गया है।
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ममता के मायके से फ़ोन आया था । जिसे सीने से लगाए बैठी रही। शब्दों में वही गर्माहट थी, जो अब जीवन में कहीं नहीं थी।
उसके भीतर जैसे कोई पुराना दरवाज़ा खुल गया —
जहाँ वह अब भी वही ममता थी, जो पिता की गोद में निश्चिंत होकर हँसती थी।
बच्चा उसकी गोद में सो गया था।दीलेश कमरे में आया।
उसने देखा — ममता की आँखों में आँसू हैं, देखा ।
“क्या हुआ?”उसने पूछा।
ममता ने कहा —
“पिताजी का फ़ोन आया है।”
“उन्होंने क्या कहा ?”
“उनकी तबीयत खराब है । कह रहे थे कि देखने के लिए आ जाओ । "
कुछ क्षण की खामोशी रही। पहली बार बिना किसी तर्क, बिना किसी दूरी के। दीलेश ने धीमे स्वर में कहा —
“क्या हम फिर से शुरू कर सकते हैं, ममता?”
ममता चुप रही —फिर धीरे से बोली,
“शुरुआत तब होती है जब दोनों सच बोलें।
मैं बोलूँगी, अगर तुम सुन सको।”
दीलेश ने सिर हिला दिया।
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सुबह के सूरज ने जब आँगन में झाँका, तो दीलेश और ममता साथ खड़े थे। दोनों के बीच कोई वादा नहीं, बस एक सहमति भरी खामोशी थी —जो कह रही थी,
“अब हम सच में जीने की कोशिश करेंगे।"
"जब ममता अपने पिता जी से मिलने पहुँची, तो उनकी आँखों में स्नेह और संतोष की एक हल्की सी चमक थी। दीलेश के चेहरे पर पछतावे की रेखाएँ साफ झलक रही थीं।
पीछे खड़ा दीलेश कुछ नहीं कह सका। उसके चेहरे पर पछतावे की परछाईं थी, जैसे बीते हुए पलों का बोझ उसके हर शब्द को रोक रहा हो। लेकिन पिता जी ने उसकी ओर देखा और हल्की मुस्कान के साथ बोले- “बेटा, देर से ही सही, पर आ गए... यही बहुत है।”
उस पल घर का सन्नाटा भी जैसे पिघल गया। ममता ने पिता जी के हाथ थाम लिए, और उनके मुरझाए चेहरे पर स्नेह की रोशनी फैल गई — एक ऐसी रोशनी, जिसमें सारे गिले-शिकवे धीरे-धीरे मिटने लगे।
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