एक अधूरा प्यार कहानी - An Incomplete Love Story दसवीं कक्षा की पढ़ाई से ही मीनू, कमलेश और नीलू के बीच गहरी मित्रता थी। पढ़ाई उनके लिए केवल एक ज़िम्मेदारी नहीं, बल्कि एक साझा यात्रा थी। जब भी कोई कठिनाई आती, तो वे तीनों मिलकर बैठते, मन से बातें करते और हर समस्या का हल खोज ही निकालते। गणित और विज्ञान जैसे जटिल विषयों में भी उनकी विशेष रुचि थी, और वे मिलकर उन्हें आसान बना लिया करते थे। पढ़ाई तक ही सीमित न रहते हुए, वे समसामयिक घटनाओं, राजनीति, धर्म और समाज से जुड़े मुद्दों पर भी गंभीर चर्चा किया करते थे। उनकी मित्रता, जिज्ञासा और समर्पण, उस उम्र में भी कुछ बड़ा कर दिखाने का संकेत था।
An Incomplete Love Story
मीनू और नीलू भाई-बहन थे। उनके जीवन में कमलेश की मौजूदगी कुछ ऐसी थी जैसे सुबह की धूप — सरल, स्नेहिल और आत्मीय। कमलेश उनके इतने करीब था कि उसकी अनुपस्थिति उन्हें अधूरा महसूस कराती। मीनू जहाँ भी जाते, कमलेश को साथ ले जाना नहीं भूलते। कमलेश का मीनू के घर में आना-जाना ऐसा सहज था जैसे वह इस परिवार का ही हिस्सा हो।
कभी-कभी जब मीनू कॉलेज नहीं जा पाते, तो वे नीलू से बड़े विश्वास से कहते, "कमलेश को अपने साथ जरूर ले जाना।" यह रिश्ता सिर्फ दोस्ती का नहीं, बल्कि एक भरोसे की डोर में बंधा हुआ था।
समय की चाल ने जैसे मीनू को घर की जिम्मेदारियों में उलझा दिया। पढ़ाई पीछे छूटने लगी और कमलेश और नीलू आगे बढ़ते चले गए। मीनू के कई काम अब कमलेश कर देता — निस्वार्थ भाव से, बिना किसी अपेक्षा के।
इधर, नीलू और कमलेश की दोस्ती धीरे-धीरे गहराने लगी। उनके बीच का भेदभाव मिटने लगा और एक सुंदर, सहज रिश्ता आकार लेने लगा — ऐसा रिश्ता जिसमें शब्दों की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। वे साथ बैठते, साथ हँसते, कभी रूठते, कभी मनाते — एक-दूसरे की उपस्थिति ही उनके लिए काफी थी। उनके बीच एक ऐसी आत्मीयता पनप रही थी, जो मौन रहकर भी बहुत कुछ कह जाती थी।
घर से कॉलेज जाते ही कमलेश की निगाहें नीलू को ढूंढ़ने लगती थीं। जैसे उसकी एक झलक से ही दिन पूरा हो जाता हो। नीलू की मुस्कान, उसकी मौजूदगी — सब कुछ कमलेश के दिल को सुकून देती थी। वह चाहता था कि नीलू खुद चलकर उसके पास आए, बिना कहे, बिना बुलाए... बस यूँ ही। लेकिन नीलू तो दोस्तों में उलझी रहती, हँसती-मुस्कराती, और कमलेश एक कोने में खामोशी ओढ़े उसकी तरफ देखता रहता। हर पल एक अजीब सी बेचैनी उसके भीतर उमड़ती रहती, जैसे कुछ कह न पाने की कसक उसे भीतर ही भीतर तोड़ रही हो।
कमलेश खुद को समझ नहीं पा रहा था। आख़िर ऐसा क्यों महसूस होता है कि नीलू के बिना उसकी दुनिया अधूरी है? क्या वाकई ये सिर्फ उसका ही एहसास है? शायद नीलू ने कभी महसूस ही नहीं किया... तभी तो उसकी गैरमौजूदगी नीलू को ज़रा भी नहीं खलती। कमलेश के मन में एक गहरी उलझन थी—क्या सिर्फ वही इस रिश्ते को महसूस कर रहा है? क्या सचमुच उसे ही कुछ हो गया है... या ये बस एकतरफा चाहत की टीस है, जो अंदर ही अंदर उसे चुपचाप तोड़ रही है?
आख़िर एक दिन कमलेश से रहा नहीं गया। उसने धीरे से कहा — 'मुझे तुम्हारे बिना अच्छा नहीं लगता। मैं चाहता हूं कि जब भी तुम्हें मौका मिले, तुम मेरे साथ रहो। क्या तुम्हें भी वही महसूस होता है, जो मैं हर रोज़ महसूस करता हूं?'
वह कुछ पल चुप रही। कमलेश की आंखों में झांकती रही — जैसे उसके दिल की गहराइयों को पढ़ने की कोशिश कर रही हो। पर कुछ बोली नहीं... सिर्फ़ ख़ामोशी थी, और उस ख़ामोशी में बहुत कुछ छिपा था — शायद स्वीकृति, या फिर अस्वीकार। कमलेश समझ नहीं पाया।
कई सवाल उसके मन में उठते। वह कभी खुद से जवाब ढूंढता, तो कभी डर जाता, और कभी-कभी खुश भी हो उठता।
वह नीलू के हावभाव, उसकी बातों, उसकी ख़ामोशी — हर पहलू को पढ़ने की कोशिश करने लगा, ताकि अपने प्यार की पुष्टि कर सके।
उसे नीलू की मीठी बातों में अपनी अहमियत और उसके प्यार की झलक ढूंढ़नी थी।
वह इन दिनों कुछ अधिक ही बेचैन रहने लगा था — जैसे हर पल किसी इंतज़ार में हो। अब तो उसे बस एक मौके की तलाश रहती, कि कब हम अकेले हों, और अनकही बातों का सिलसिला फिर चल पड़े। उसकी उपस्थिति ही जैसे किसी अधूरी सी चीज़ को पूर्ण कर देती थी।
जब भी कमलेश बातें करता, वह धीरे से पास सरक आता। उसका हल्का सा स्पर्श भी जैसे पूरे अस्तित्व में एक मीठी सरसराहट, एक अनकही ताजगी भर देता था। मानो उसकी उँगलियाँ नहीं, कोई पुरानी पहचान छू गई हो... ।
कमलेश के दिल में नीलू के लिए भावनाओं का सागर हर पल उमड़ता रहता था, पर उस सागर की गहराइयों में एक डर भी छुपा था — खो देने का डर। वह डरता था कि कहीं नीलू उससे दूर न हो जाए। जब कभी वह धीरे से पूछ बैठता, 'नीलू, क्या तुम भी मुझसे प्यार करती हो?' तो नीलू उसकी आँखों में झाँकते हुए बस इतना कहती — 'तभी तो तुम्हारे इतने क़रीब बैठती हूँ।' उस एक वाक्य में जैसे सारा प्रेम समा जाता था। पर्याप्त था निश्चित होने के लिए ।
ऐसे ही दिन गुजर रहा था । प्यार भरी बातें और अहसासों में । हर दिन नया.. ।
उस दिन शाम होने वाली थी । कमरे में हल्की रोशनी फैली थी, लेकिन कमलेश के भीतर एक अजीब सी उदासी पसरी हुई थी।
वो नीलू को देख रहा था — पास होकर भी जैसे बहुत दूर चली गई हो।
कुछ देर की चुप्पी के बाद उसने हिम्मत जुटाकर पूछा,
कमलेश ने कहा -
"नीलू, क्या बात है? तुम इन दिनों... कुछ बदल सी गई हो। क्या मैंने कुछ गलत कहा या किया है?"
नीलू ने नजरें चुराईं, जैसे कुछ छिपाना चाहती हो। फिर हल्की-सी मुस्कान के साथ बोली —
नीलू ने कहा -
"नहीं कमलेश, ऐसा कुछ नहीं है। मैं तो पहले भी ऐसी ही थी। शायद तुम ही अब ज़्यादा सोचने लगे हो। रोज-रोज पुछने से मुझे बुरा अहसास होता है । "
कमलेश चुप हो गया। उसके पास कहने को बहुत कुछ था, लेकिन शब्द जैसे गले में अटक गए।
उसने खिड़की से बाहर देखते हुए कहा —
"नहीं, तुम बदल गईं हो । "
"पहले भी ऐसी ही थी? "नीलू जिंद करती हुई बोली ।
'" नहीं नीलू, पहले तुम्हारी खामोशी भी सुकून देती थी... अब तो तुम्हारी बातें भी पराई लगती हैं।"
तुम्हारी आँखें पहले सवाल करती थीं, अब जैसे जवाबों से भी डरती हैं।"
उसने कुछ नहीं कहा और चुप्पी साध ली ।
कमलेश जानता था —
अगर उसने आगे कुछ कहा, तो शायद यह सूखा हुआ रिश्ता पूरी तरह टूट जाएगा।
और कभी-कभी, टूटने से बचाने के लिए भी चुप रहना पड़ता है...
...चाहे मन अंदर ही अंदर कितना भी टूट क्यों न रहा हो ...! जिंदगी ,बस उसी में ढूंढ ली थी । वह रिश्तों को सम्हालने की कोशिश करता था ।
कमलेश के मन में अक्सर एक गहरी उदासी भर जाती थी। जब वह किसी फ़ोन कॉल पर यूँ ही चुपचाप उठकर चली जाती, बिना कुछ कहे, । कई बातें उसकी ऐसी थी जिसमें न प्यार दिखता था, नहीं अपनापन । जैसे न कोई मेसेज, न कोई फोन...अपना स्थान ढूंढता तो उसके भीतर एक सन्नाटा पसर जाता। उसे लगता मानो उनके रिश्ते की कोई अहमियत ही नहीं—जैसे वह सिर्फ़ तब तक ज़रूरी है, जब तक और कोई नहीं। यह उपेक्षा उसके आत्मसम्मान को भीतर तक चोट पहुँचाती। ऐसे पलों में कमलेश का दिल कह उठता — क्या वाक़ई प्यार ऐसा होता है? क्या किसी के जज़्बातों में बहना इतना ही व्यर्थ है? उसे लगने लगता कि शायद सच्चे जुड़ाव की उम्मीद ही सबसे बड़ी भूल है।
इन सबके बावजूद, जब भी वह नीलू के पास जाता, तो जैसे सारी दुनिया से नाता टूट जाता। उनके बीच केवल प्रेम की सघन अनुभूति शेष रह जाती थी — न कोई दूरी, न कोई दुविधा। फिर भी, नीलू की कुछ बातें कभी-कभी उसे गहराई से महसूस करवा देती थीं कि वे दोनों दो किनारों की तरह हैं — पास होते हुए भी अलग-अलग।
वह बार-बार कोशिश करता — अपने भीतर की टीस, अपनी पीड़ा को नीलू तक पहुँचाने की। पर न जाने क्यों, हर बार शब्द उसका साथ छोड़ जाते। जैसे भीतर जो कुछ था, वह शब्दों के पार था। प्रेम में जब आप अपने दर्द को कह नहीं पाते, तो वह और गहरा चुभता है — एक ऐसी चुप्पी बनकर, जो धीरे-धीरे भीतर को खा जाती है।
वह सोचता — क्या नीलू जानबूझकर ऐसा करती है? क्या उसकी वह उपेक्षा एक संकेत है, कि मैं ही पीछे हट जाऊँ? पर नहीं... अगर ऐसा होता, तो वह कह देती। वह निडर है, सच्ची भी। उसका यूँ चुप रहना कोई इनकार नहीं लगता — बल्कि एक असमंजस, एक उलझन जैसा महसूस होता है। और यही अस्पष्टता, यही अनकहा, उसे लगातार एक भावनात्मक द्वंद्व में डाले रखता है। न छोड़ पाता है, न पूरी तरह पकड़ पाता है। बस... कहीं बीच में टंगा रह जाता है — प्रेम और अकेलेपन के उस सूने पुल पर ।
एक दिन दोनों साथ में बैठे हुए थे ।
"मैं सोचता हूं कि अब हमें अलग-अलग हो जाना चाहिए । मैं नहीं चाहता कि कोई ग़लती हो..जिसकी जिम्मेदारी मुझ पर आएं । "
नीलू कुछ क्षणों तक निःशब्द बैठी रही, फिर धीरे से उठी और वहाँ से चली गई। शेष मित्रों से वह ऐसे मिली, जैसे कुछ भी घटित न हुआ हो—हावभाव में वही सहजता, वही मुस्कान, मानो किसी भावना की कोई गांठ ही न रही हो।
परंतु कमलेश मन में उठता द्वंद्व आखिर कब तक अनदेखा रहता? प्रेम की जो कोमल अनुभूतियाँ , धीरे-धीरे सपनों का ताना-बाना बुन रही थीं, वे अब यथार्थ की कठोर भूमि से टकराने लगी थीं। प्रेम अब आवेग नहीं, विचार का विषय बनने लगा था। अब वह यह समझने लगा था कि कुछ लोग जब किसी रिश्ते से हटना चाहते हैं, तो वे स्पष्ट शब्दों में कुछ नहीं कहते—बल्कि अपने व्यवहार को ही इस तरह बदल देते हैं कि सामने वाले को स्वयं ही संबंध से हटना पड़ता है। नीलू का व्यवहार भी कुछ इसी मूक विदाई का संकेत था। जिसे कमलेश बार-बार महसूस कर रहा था ।
वह अनजाने ही उनके निजी रिश्तों के बीच इस तरह शामिल हो गया था, जैसे किसी अजनबी का साया — जिसे नीलू चुपचाप सहती रही। न कोई शिकायत, न कोई सवाल। वह बस समय के साथ बहती रही, बिना किसी भावनात्मक जुड़ाव के। जिसे कमलेश प्रेम समझ बैठा था, वह शायद नीलू के लिए केवल एक आदत थी — या महज़ एक पड़ाव।
शायद अधूरा प्यार सबसे ज्यादा थकाता है — वह जो कभी पूरा था ही नहीं, और जिसकी कोई मंज़िल भी नहीं थी।
अब वह सोचने लगा था कि प्रेम के बिना भी जिया जा सकता है। अगर यही स्वतंत्रता है — बंधन से मुक्ति, भावनाओं से परे एक निर्विकार जीवन — तो शायद यही रास्ता ठीक है। वह खुद को उस मोह से मुक्त करना चाहता था, जो हर बार उसे उसी अधूरे मोड़ पर लाकर छोड़ देता।
"अगर नीलू मेरी होती," वह सोचता, "तो कभी दूर नहीं जाती। और अगर वह मेरी नहीं थी, तो फिर कभी करीब आती ही क्यों?"
लेकिन इन सब विचारों के बीच भी एक खालीपन उसे घेर लेता — एक चुप सी टीस, जो शायद वही असली प्रेम था... अधूरा, मगर सच्चा।
समय के साथ कमलेश ने भी उससे नज़रें चुरानी शुरू कर दीं। पर नीलू ने कभी कुछ नहीं कहा — जैसे उसे फर्क ही नहीं पड़ा। शायद उसे कुछ महसूस ही नहीं हुआ, या उसने कभी प्रेम को जीया ही नहीं।
न कोई शिकवा, न कोई गिला।
शायद सच्चा प्रेम वही होता है — जो अधूरा रहकर भी अपना सब कुछ दे देता है।
और एकतरफा प्रेम... वो तो हमेशा ही मुकम्मल होने से पहले टूट जाता है।
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