पारिवारिक रहस्य कहानी Family secret story

Family Secret Story  दिलेश्वरी जब भी गांव जाती थी ।वह बातों - बातों में देवरानी जेठानी को सुनाया करती थी  । सुनाती क्या थी - सबको एहसास कराती थी कि उसके मायके में कुछ भी कमी नहीं है । जरूरी हर सामान भरे हुए हैं । मायके में उसे सब चाहते हैं ,सहारते हैं ।

Family Secret Story


बस भाई काम की वजह से उसके ससुराल नहीं आ पाते हैं । मां-बाप तो पहले ही गुजर गए हैं । कभी-कभी तो तीजा पर्व (तीज) में लेने के लिए पहुंच नहीं पाते हैं । जबकि उसकी देवरानी जेठानी मायके चली जाती थीं । जब मायके से आती तो दिलेश्वरी को बताती, इस बार भाईयों ने उसके लिए दो हजार की साड़ी खरीदा है । उनके बच्चों के लिए नए-नए कपड़े खरीदे हैं। तुम्हारा भाई तुम्हें लेने के लिए भी नहीं पहुंचे । कैसा भाई है  !

ससुराल सम्पन्न था ।भगवान ने अभी उसके हिस्से में बच्चों का सुख नहीं दिया है ।  उसके पति तीन भाइयों में मंझले थे । तीनों भाई अपने-अपने कामों में व्यस्त रहते थे । दिलेश्वरी का पति काम में इतने व्यस्त रहते थे कि कभी फुर्सत ही नहीं निकाल पाते । न कभी ससुराल गए और न ही कोई और गांव । हां,एकाध बार को छोड़कर । उसने अपनी कमाई मां को दे देता था ।
उसकी मां जो भी लाकर दिलेश्वरी को दे दें । वहीं ठीक है । उसकी मां कभी भी बहुओं के बीच में अंतर नहीं की । जो भी खर्च करना हो , सबको बराबरी के हिसाब से बांट देती थी । जिससे कारण बहुओं ने भी उसकी बुराई नहीं की । उसके पति की मृत्यु के बाद उसपर ही घर की जिम्मेदारी आ गई थीं ।

उस दिन भी तीज का पर्व था। भाई दिलेश्वरी को लेने आया था। भाई को देखकर दिलेश्वरी बहुत खुश हो गई। वह अपनी देवरानी और जेठानी से कहने लगी —
"मेरा भाई ऐसा है कि पूरे घर की ज़िम्मेदारी निभा रहा है। भाभी को किसी चीज़ की कमी नहीं होने देता है। जो भी माँगें, सब कुछ ला देता है। तीनों भाइयों ने अपने-अपने परिवारों को बहुत अच्छे से संभाल रखा है। यहाँ तक कि पड़ोसी भी ईर्ष्या करते हैं।

जब मैं मायके जाती हूँ तो मेरे तीनों भाई इतने खुश हो जाते हैं कि कहते हैं — ‘आज मेरे घर खाना खा लेना’, ‘मेरे यहाँ सो जाना’। अब मैं ठहरी अकेली, सोच में पड़ जाती हूँ कि किसके यहाँ खाऊँ, कहाँ सोऊँ। बड़ी दुविधा हो जाती है।”

दिलेश्वरी की बातें सुनकर उसकी देवरानी और जेठानी भीतर-ही-भीतर जल जाती थीं, लेकिन उसकी सास मुस्कुरा देती थीं। वह जानती थीं कि मंझली बहू किसी को जलाने के लिए यह सब नहीं कह रही है, बल्कि स्वयं को अपनी देवरानी और जेठानी के समकक्ष खड़ा कर रही है।

जब दिलेश्वरी ने मायके जाने की पूरी तैयारी कर ली, तो सास ने उसे अपने कमरे में बुला लिया। देवरानी और जेठानी समझ रहीं थीं कि सास मायके से लौटने की तिथि तय कर रही हैं। दरअसल, जब भी दिलेश्वरी मायके जाती, सास की यह आदत रही है कि वह उसे एक बार अपने कमरे में ज़रूर बुलाती थीं। इस बार भी वही हुआ।

कमरे से निकला तो भाई घर जाने के लिए तैयार था ।

भाई के घर कदम रखते ही दिलेश्वरी ने एक अजीब-सा सूनापन महसूस किया। जैसे इस घर में जीवन की रौनक ही कहीं खो गई हो। जब से मां-बाप का स्वर्गवास हुआ था, तब से ही यह घर उसे अधूरा और बेजान लगने लगा था। लेकिन आज, वह अधूरापन कुछ और गहरा, कुछ और स्याह प्रतीत हो रहा था। घर की दीवारें चुप थीं, आंगन उदास और हर कोना जैसे किसी अपने की बाट जोह रहा था।

दिलेश्वरी अपने भाई-बहनों में सबसे छोटी थी। इसी कारण वह कभी अपने मन की बात खुलकर कह नहीं पाती थी, विशेषकर अपने बड़े भाइयों से। उनके प्रति एक संकोच और आदर का भाव हमेशा बना रहता था।

थोड़ी देर बाद उसने धीरे से पूछा,
"भाभी नहीं हैं क्या, भाई?"

भाई ने सादा-सा उत्तर दिया,
"नहीं हैं। इसलिए तो तुम्हें लिवा कर लाया हूँ। अकेले खाना बनाना मुश्किल हो जाता है। अब तुम आ गई हो, तो ये झंझट भी दूर हो गया। वैसे तुम्हारी भाभी ने ही कहा था कि तुझे ले आऊं।"

भाई की आवाज़ में एक सुकून था, एक भरोसा कि अब घर में कुछ व्यवस्था हो सकेगी। उनकी बातों में आत्मीयता थी, लेकिन दिखावटी । जिससे दिलेश्वरी के मन में एक गहरी टीस उठने लगी थी। भाई की आश्वस्ति भले सच्ची हो, पर उस आश्वस्ति के पीछे उसके भीतर कहीं कोई खालीपन चुपचाप सिर उठा रहा था।

उसे लग रहा था मानो उसका अपना अस्तित्व केवल एक सहूलियत बनकर रह गया है—खाना बनाने की सुविधा मात्र। फिर भी, उसने भाई की खुशी को महसूस किया और सोची, चलो ! ठीक है, अपनों के लिए ही तो हूं । चाहे भाव कुछ भी हो ।

लेकिन उस सूनापन में, उस चुप्पी में, दिलेश्वरी के भीतर एक करूणा जाग रही थी। एक ऐसी करूणा जो अपने लिए नहीं, बल्कि उन रिश्तों के लिए थी जो अब बोझिल हो चले थे। उसका मन किसी दुलार, किसी आत्मीय स्पर्श को तरसने लगा था—एक ऐसे अपनत्व की खोज में, जो बिना कहे उसे समझ सके।.. वो जानती थी कि बाकी भाई पुछेंगे भी नहीं ।
इसलिए मां-बाप की याद आने लगी और उसकी आंखें भर आई । आज जिंदा होते तो उसकी आंखें नहीं रोती ।

घर में भाभी के आते ही भाई ने पूछा – "तुम्हारी सास ने तुम्हें कब तक के लिए भेजा है? बाद में मुझे काम-धंधे से समय नहीं मिलेगा, और तुम्हें ससुराल नहीं छोड़ पाऊंगा।"

भाई की इस बात को सुनकर दिलेश्वरी कुछ पल तक उसका मुँह देखती रही। फिर कुछ क्षण की चुप्पी के बाद धीरे से बोली –
"जल्दी बुलाया है।"
और फिर चुप हो गई।

उसकी चुप्पी में एक संपूर्ण कथा थी — एक एहसास था कि अब ससुराल ही उसका अपना घर है।
वहीं प्रेम है, अपनापन है।
वहीं एक मां जैसी सास है — जो बिना कहे उसके मन को पढ़ लेती है।
हर बार मायके आते समय मुस्कुराते हुए दो हजार रुपये उसके हाथ में थमा देती है, यह कहकर –
"मायके की ओट में कुछ अपने लिए भी ले आना बेटी..."

अपनी सगी बेटी की तरह मानतीं हैं । इतना प्यार आजकल कहां मिलता है ?


वह चुपचाप इसलिए देती हैं, ताकि घर की अन्य बहुएँ कुछ कह न सकें। घर का वातावरण शांत बना रहे। किसी के मन में ऊँच-नीच या भेदभाव का कोई भाव न आए।

दिलेश्वरी के मायके में अब कोई नहीं बचा, जो उसे स्नेह दे सके... जो उसे अपना कह सके।
वह मन ही मन सोचने लगी — "मैं कितनी अभागी हूँ..."

सोचते-सोचते उसका गला भर आया। आंखों में नमी तैरने लगी — मगर होंठ अब भी चुप थे।

वह मायके से ससुराल तो आ गई, लेकिन आज भी मायके की तारीफ़ करती रहती थी।
सास से उसके रिश्ते में एक दिखावटी दूरी थी — एक ऐसी दूरी, जिसे कोई समझ नहीं सकता था।

लगभग एक साल के भीतर वह माँ बन गई, और उसके संसार का विस्तार हो गया।
अब न उसे देवरानी या जेठानी को कुछ सुनाने की इच्छा रही, न ही किसी से कोई अपेक्षा।
जैसे उसके भीतर कुछ शांत हो गया था — एक माँ होने की पूर्णता ने उसे संपूर्ण बना दिया था।

-राजकपूर राजपूत

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