गांव का बाजार - कहानी Village Market - Story

Village Market - Story गांव के लोग और खासकर महिलाएं सोच-समझकर खर्च करती हैं। हर चीज का हिसाब घर के जरूरी खर्चों से तय होता है, न कि अनावश्यक चीजों से। घर के बजट और जरूरतों के मुताबिक, वे फिजूलखर्ची को जानते ही नही । 

Village Market - Story

बाजार पांच बजे लगेगा, लेकिन कुछ लोग पहले से चार बजे पहुंच गए हैं ताकि यह पता कर सकें कि बाजार का भाव कितना है। एक्का-दुक्का सब्जी वाले अपना सामान जमा रहे हैं। गर्मी का दिन है और सूरज की तपिश पांच बजने के बाद भी कम नहीं है। दुकानदार सब्जियों में पानी डालकर उन्हें हरा रखने का प्रयास कर रहे हैं। पास के तालाब से पानी भर-भरकर अपने टसले से ला रहे हैं। इससे दो फायदे हैं - पहला कि सब्जी ताजी रहती है और दूसरा कि वजन भी बढ़ जाता है, खासकर साग-सब्जियों जैसे लाल भाजी, पालक, हरी धनिया आदि में। कुछ दुकानदार यह भी बतिया रहे हैं कि अमुक सब्जी कम आई है, इसलिए ऊंचे रेट पर बेचनी होगी ताकि अच्छी कीमत मिल सके। सब्जी बेचने वालों ने एक-दूसरे से कहा।


कुछ देर बाद सब्जी बेचने वालों की आवाजें सुनाई देने लगीं । बीस रुपए किलो टमाटर, । आलू बीस के डेढ़ किलो । खिलौनें वालों ने आवाज दी - सस्ते का माल रस्ते में । टमाटर वालों ने कहा -लाल लाल जो खाएगा, लाल हो जाएगा ।


सब्जी बेचने वालों के अपने - अपने तरीके । लोगों का ध्यान खींचने के लिए । जो खरीदना नहीं चाहते वे भी पहुंच जाते हैं । यह पूछने के लिए कि क्या भाव है ? शायद  ! अच्छी सब्जी होगी  । ये अलग बात है कि उसे दूसरे सब्जी वाले कितनी कीमत में दें रहे हैं । सब जानते हैं ।


कुछ आवारा लड़के  मस्ती कर रहे हैं । मोटरसाइकिल से तेज़ रफ़्तार और आवाज से आ जा रहे हैं । जो यह दिखाने का प्रयास कर रहा है कि गांव में बदमाश या वर्चस्व वाले  हैं । उससे कौन उलझ सकता है । मजाल है, भरे बाजार में कोई उसे टोक दें । सबके बीच से कट मार कर गाड़ी भगा रहे हैं । ऐसा पूरे बाजार के समय तक करते हैं । गाड़ी तेल से नहीं चलती क्या ? जो फिजूल में दौड़ा रहे हैं । इनके बाप अमीर होंगे । तभी तो,,  ,, नहीं, नहीं । आवारा लड़के हैं ।‌ वे लोग भी नहीं समझा पाते होंगे । ऐसे लड़कों को ।  गुटखा पान खाकर थूकते हुए जगह-जगह । और क्या बताएं । जरा सा भी संस्कार नहीं है ।

उसी बाजार में बच्चे अपने पिता की उंगली पकड़कर चल रहे हैं । सब्जी खरीदने के बाद समोसा, चिप्स, बड़ा, पानी पूरी खरीदवाने के लिए । वे सोच रहे हैं कि कब पिताजी की खरीददारी पूरी होगी और अपना मनचाहा समान खरीदवा पाएंगे ।


बाजार के पास पीपल पेड़ के नीचे दो चार महिलाएं बैठी हैं । इस इंतजार में की कीमतें कम होगी तो खरीदारी करेंगे । काफी देर हो गई तो महिलाएं खरीदारी करके चली गईं । उन्हीं महिलाओं में से एक महिला अभी भी बैठी है । बूढ़ी औरत है । इस इंतजार में अभी कीमत ज्यादा है । कुछ देर में कम हो जाएगी या कुछ और बात है । शायद  ! वो मांगने आई है । सब्जी वालों की बोहनी हो जाने पर ही उठेगी । बोहनी होने से पहले उसे कौन सब्जियां देगी ?


टोकनी (टोकरी) अपने पास रखी हुई है। काफी देर बाद उसे लगा कि अब उसे भी बाजार घूमना चाहिए। वह अपनी टोकनी लेकर सब्जी वाले के पास जाती और वे उसे खराब किस्म की सब्जी डाल देते। कुछ अच्छे सब्जी वाले उसके प्रति सहानुभूति पूर्वक व्यवहार करते, जबकि कुछ उसकी टोकनी को देखते ही भगा देते।


"अभी जाओ, बाद में आना। बोहनी के समय मांगने आ जाते हो।"


वह महिला खिसियाने पर भी कुछ नहीं कहती और दूसरे के पास जाकर अपनी टोकनी बढ़ा देती। यही प्रक्रिया पूरे बाजार में चलती रहती, सब्जी वाले से लेकर समोसे वाले तक सबके सामने अपनी टोकनी फैलाती।


शुरुआत में जब वह इस तरह मांगती थी, तो उसे बुरा लगता था, लेकिन क्या करती? वह असहाय औरत थी और बाजार वाले ही उसका सहारा थे । गांव में कभी किसी के घर मांगने नहीं जाती थी ।


पहले बाजार वालों को पता नहीं था कि इस बुढ़िया का एक बेटा भी था । जो लखनऊ कमाने खाने गया था । अपनी पत्नी  और बेटी के साथ लेकिन एक हादसे में,  काम करते समय पैर फिसला और दस मंजिला इमारत से गिर गया । अब इतनी ऊंचाई से कोई गिरेगा तो भला  कैसे बच पाएगा !  उसकी पत्नी अस्थियां लेकर गांव आ गई । रोई भी नहीं । बेचारी बुढ़िया को अपने बेटे का मुंह देखना भी नसीब न हुआ था। गांव के रिश्तेदारों ने ही बेटे की सभी क्रियाएं और कर्म किए ।


उसके बेटे के दशगात्र तक तो उसकी पत्नी कुछ नहीं बोली । लेकिन महीने भर में ही अपना रंग देखना शुरू कर दिया । बुढ़िया से चुपचाप जमीन के कागजात पर हस्ताक्षर करवा लिए और उसकी सारी जमीन अपने नाम करवा लिया । बुढ़िया के लिए केवल घर छोड़ दिया । जिसमें अकेली रहती है । उसकी बहू मायके चली गई ।



बुढ़िया शासन का फ्री चावल और बाजार से सब्जी मांगकर अपना पेट पालती थी। जब तबीयत खराब होती, तो वह चावल बेच देती । कभी-कभी वह सोचती कि अगर उसकी तबीयत ज्यादा बिगड़ जाएगी, तो वह घर पर ही पड़ी रहेगी और किसी को उसकी परवाह नहीं होगी। उसे नहीं पता था कि उसका अंतिम संस्कार कौन करेगा, और न ही उसे पता था कि उसके रिश्तेदार उसके क्रिया-कर्म करेंगे या नहीं।


वह सोचती कि जैसे उसके बेटे के साथ हुआ था, वैसे ही उसके साथ भी होगा।
रिश्तेदार उसके क्रिया-कर्म कर देंगे और घर बेच दिया जाएगा । मतलब में आजकल सभी रहते हैं ।
अगर कुछ पैसे मिले, तो वह जीते जी पड़ोसियों को बोल देगी कि वे उसके अंतिम समय में ध्यान रखें और इसके बदले में उन्हें घर दे देगी।


लेकिन अंततः वह सोचती कि मरने के बाद उसका क्या होगा, कौन जानता है! इससे उसे क्या मतलब? जब तक वह जिंदा है, वह खाएगी
और यही निश्चिंतता उसे चैन की नींद सोने देती थी। गांव का बाजार उसके लिए बेटा बन गया था, जो उसे जीवन जीने के लिए आवश्यक चीजें प्रदान करता था।


-राजकपूर राजपूत



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