poem on love
साफ-साफ कह दो
गलती है तो माफ कर दो
भूल सुधर जाय ऐसा मौका दो
मुझपे भी इतनी दया कर दो
साफ-साफ कह दो
मीठी बातों से रिश्ते नहीं बनते हैं
कुछ कांटे कुछ फूल भी मिलते हैं
चले सफर में हम हॅंसते-हॅंसते
अपनी नफ़रत कहीं पे रख दो
अगर तकलीफ है तो
साफ-साफ कह दो
दो दिन की जिंदगानी है
जिसे मोहब्बत से बितानी है
हर लम्हा अनमोल है
इसे बाहों में भर लो
कल न हो कोई पछतावा ऐसा
वक्त बीत गया अब जाने दो
इसलिए साफ-साफ कह दो !!!
poem on love
मौका मिला है मौका कहां छोड़ेगा
कुछ घटनाएं निंदनीय है जिसे हिंदू से जोड़ेगा
तथाकथित बुद्धिजीवी हैं इस बात का घमंड है
सियासत साहित्य में कहां - कहां छोड़ेगा
अरे ! साफ-साफ कहो ना नफ़रत है
अब देखना है तू तीर कहां छोड़ेगा !!!!
वो साहित्य में सियासत क्या लाए
लोग बोरियत महसूस करते हैं थकावट लाए
वो तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग है
बेवजह ज्ञान लाए
लिखकर दो चार पंक्तियां अपने एजेंडे की
नफ़रत है नफरती राग गाए !!!
तुम अभी तक उलझन में पड़े हो
चल रहे हो कि खड़े हो
प्रेम है तो साथ चलना चाहिए
गंगा का निर्मल ठहरें तो सड़े हो !!!
न कह पाना
घूट कर जीना
निकल नहीं पाएं
जो विचार आए
कह न पाए तो
किसी चीज को तोड़ देना था
जो लगता है बुरा छोड़ देना था !!!
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