जाने कैसे
कवि बने
और लिख दी,मैने
दो -चार पन्नें
न अब नदिया हैं
न ही चिङियाॅ॑ है
न पर्वत है
न पेड़ हैं
न वह ताल,
जिसमें बगुला खडे़ है
स्थिर होकर
अपने में
न वह चकवा-चकवी
जिसमें समर्पण है
अपनापन का
न वह चाॅ॑दनी
न वह रोशनी
बारों महीनें बदली
किसे देखें ?
मेरी आॅ॑खें......
हे!प्रभु
कुछ तो हो
लिखने के लिऐ
कवि के भावना
के लिऐ
जिसे टाँगे
ऐसी खूंटी मांगे
---राजकपूर राजपूत''राज''
0 टिप्पणियाँ