समझौते के रिश्ते -सेक्स और प्यार Relationship Compromise - Sex and Love

Relationship Compromise - Sex and Love  दोनों पढ़े-लिखे थे और आधुनिक जीवन शैली को अपनाने के लिए उत्सुक थे। वे जीवन को सिर्फ जीना नहीं चाहते थे, बल्कि उसे बेहतरीन ढंग से जीना चाहते थे। वे मानते थे कि जीवन में आनंद और संतोष तभी आता है जब उसे सुंदरता और समझदारी से जिएं।

Relationship Compromise - Sex and Love

अक्सर जब वे इस विषय पर चर्चा करते, तो उन्हें लगता कि यदि वे साथ रहें और सही दिशा में प्रयास करें, तो जीवन की सच्ची खुशी को पा लेंगे। उन्हें अपने प्रेम, अपनी सोच और आपसी समझ पर गहरा विश्वास था।


लड़का, लड़की से बार-बार कहा करता था, "मैं तुम्हें जीवन की सारी खुशियाँ दूँगा। मैं तुम्हें इतना प्यार करूँगा कि तुम कल्पना भी नहीं कर सकोगी। मेरा प्रेम तुम्हारे जीवन को पूर्ण बना देगा।"


लड़की भी उसकी बातों पर मुस्कुरा देती थी, क्योंकि उसे भी विश्वास था कि उनका प्रेम सच्चा है और साथ मिलकर वे एक सुंदर, आधुनिक और संतुलित जीवन बना सकेंगे ।


देवेश और सिमरन जब भी मिलते, तो यही बातें होती थीं। दोनों एक-दूसरे का हाथ थामकर वादा करते कि जीवन भर साथ रहेंगे और एक-दूसरे से ऐसा प्रेम करेंगे, जो कभी कम नहीं होगा।


दिन बीतते गए और वे एक-दूसरे से मिलते रहे, जब तक कि घरवालों ने उनकी शादी की बात शुरू नहीं कर दी। परंतु उन्होंने शादी के बंधन के बजाय एक खुली ज़िंदगी को चुनना बेहतर समझा, ताकि वे अपने प्रेम में आज़ाद रह सकें। उनका मानना था कि प्रेम स्वतंत्रता देता है, न कि बंधन और बाध्यता। इसलिए उन दोनों ने लिव-इन-रिलेशनशिप में रहने का निर्णय लिया। एक कमरे में रह कर जिंदगी गुजारने लगें। दुनिया ताना देती थीं लेकिन उन दोनों ने परवाह नहीं किया । दांपत्य जीवन का आनंद लेने लगे ।


मगर प्रेम की वो मीठी बातें अब धीरे-धीरे धुंधली पड़ने लगीं। संवादों में अब दिल की नहीं, दिनचर्या की बातें ज़्यादा होने लगीं। ज़िंदगी की ज़रूरतें, खर्चों की गणना और भविष्य की योजनाएं—अब ये सब व्यक्तिगत दायरों में सिमट गईं। साथ मिलकर सपने बुनने की जगह, अब अपने-अपने संघर्षों की कहानियाँ सुनाई देने लगीं। रिश्ते की सामूहिकता जैसे कहीं खोने लगी थी, और हर बातचीत में एक हल्की-सी दूरी महसूस होने लगी। जो सिमरन को ठीक नहीं लगती थी । वो चाहती थी कि हमारा भी जीवन पूर्णता को प्राप्त करें । प्रेम को स्थायित्व प्रदान हो जो जीवन भर बना रहे ।


एक शाम, जब सूरज ढलने की तैयारी में था और कमरे में हल्की उदासी पसरी थी, देवेश ने अचानक कह दिया –


"हमारे बीच का रिश्ता अब पहले जैसा नहीं रहा, सिमरन। अब ये सिर्फ एक समझौता बन गया है। हम दोनों स्वतंत्र हैं। अगर चाहो तो इस पर विचार कर सकते हैं।"


सिमरन कुछ पल तक उसे देखती रही। उसके होंठ काँपे, पर शब्द नहीं निकले। ये वही सिमरन थी जो कभी कहा करती थी – "प्रेम स्वतंत्रता है, न कि बंधन।" लेकिन आज... आज वह खुद को उस प्रेम में बंधा महसूस कर रही थी।


धीरे से उसने कहा,


"तुम्हारी ये बातें मुझे अच्छी नहीं लगीं, देवेश। मैं चाहती हूँ कि हम जीवन भर साथ रहें। आज समझ में आता है कि प्रेम केवल स्वतंत्रता नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी भी है... एक-दूसरे के प्रति समर्पण और सम्मान की डोर है ये, और दुनिया क्या सोचेगी.?"


देवेश ने गहरी सांस ली, फिर कुछ तटस्थ स्वर में बोला,


"आजकल समाज बदल गया है, सिमरन। कोई किसी के बारे में नहीं सोचता। किसी के पास इतना समय नहीं है कि दूसरों के जीवन में झांके। और तुम्हें जो प्रेम जैसी भावनाएं घेरे हुए हैं, उनसे बाहर आओ। ये बस तुम्हारी कमजोरियाँ हैं।"


सिमरन की आँखें भर आईं। लेकिन उसकी आवाज़ में दृढ़ता थी –


"बाहर...? क्या हम साथ नहीं रह सकते, देवेश?


रिश्तों को तोड़कर तुम तो फिर से समाज में शामिल हो जाओगे, लेकिन मैं...?


एक स्त्री के लिए कितना कठिन होता है ऐसे रिश्ते बनाकर फिर समाज में लौटना।


लोग मुझे स्वीकार नहीं करेंगे। हर कोई सवाल करेगा – क्यों, कैसे, किसके साथ...?


मैं टूट जाऊँगी, देवेश। इसलिए मैं चाहती हूँ कि हम साथ रहें।"


देवेश चुप था। उसके चेहरे पर कोई स्पष्ट भाव नहीं थे – न सहमति, न असहमति। सिमरन ने महसूस किया कि वो दूर जा चुका है, भले ही अभी वहीं बैठा था।


पर्याप्त यौन सुख की पूर्ति और  उसके बाद शारीरिक स्खलन से जो वैचारिक दूरी बनती है ।वहीं से प्रेम धीरे-धीरे बिखरने होने लगता है। चाहे वह स्त्री हो या पुरुष । अधिकांश लोग केवल भूख लगने पर ही भोजन का सम्मान करते हैं ; ठीक वैसे ही...हां...नगण्य हैं ऐसे लोग जो बिना यौन संबंध के प्रेम भाव में जीते हैं । जब यौन भावनाएं हिलोरें लेती हैं । तभी पुरुष स्त्री को बाहों में भरता है, उसे चुमता है और वादा करता है कि वह उसके जीवन को सुन्दर और बेहतर बनाएगा  । सिमरन इस बात को समझने लगी थी ।


"मैं समझता हूँ तुम्हारी बात," देवेश ने धीमे से कहा, "लेकिन मैं अब वैसा नहीं महसूस करता जैसा पहले करता था। और झूठे रिश्ते में रहना... खुद से धोखा है।"


सिमरन की आँखें भर आईं, पर उसने आँसू नहीं गिरने दिए।


"मैं जानती हूँ, तुम शायद सही हो।


लेकिन तुम ये भी समझो – तुम्हारे इस फैसले के बाद तुम फिर से समाज में आसानी से घुल-मिल जाओगे।


पर मेरे लिए...?


मैं जिस समाज से आती हूँ वहाँ एक स्त्री के लिए ऐसे रिश्तों से बाहर निकलकर दोबारा स्वीकार किया जाना बहुत मुश्किल है।"


कमरे में लंबी चुप्पी छा गई।


फिर देवेश उठा, और बस इतना बोला –


"मुझे थोड़ा वक़्त दो। मैं सोचूंगा... हम फिर बात करेंगे।"


और वह चला गया।


सिमरन वहीं बैठी रही।


उसने कोई निर्णय नहीं लिया उस पल – न जाने देने का, न रोकने का।


लेकिन भीतर कहीं एक निर्णय उग रहा था –


शायद अकेले जीने का, शायद अपने लिए खड़े होने का...


या शायद यह जानने का कि प्रेम सिर्फ पाने या छोड़ने का नाम नहीं –


कभी-कभी प्रेम का अर्थ केवल किसी और से नहीं, बल्कि स्वयं से भी प्रेम करना होता है। पर यह इतना सरल भी कहाँ होता है? वह तो देवेश की आदी हो चुकी थी — उसकी आदतें, उसकी मौजूदगी, उसकी खामोशी तक उसे अपनी लगने लगी थी। फिर भी... जीवन तो चलना ही है।

देवेश के साथ जो रास्ता उसने चुना था, उसमें वह भी उतनी ही सम्मिलित थी। फिर दोष किसका? देवेश की बस एक ही ‘ग़लती’ थी — उसे प्रेम नहीं हुआ।
कुछ समय बाद, सिमरन ने देवेश को जाने देने का निर्णय ले लिया। क्योंकि समझौतों पर टिके रिश्ते स्थायी नहीं होते हैं । अक्सर उसी समझदारी में सही लगते हैं — जहाँ जाने देना, थामे रहने से ज़्यादा सुकून देता है। जो प्रेम था उनका !!!!!!

-राजकपूर राजपूत



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