अस्तित्व एक आत्मसम्मान Axistence is a Self Esteem

  Axistence is a Self Esteem गांव में अक्सर लोग अपने बच्चों  को चौदह पंद्रह के उम्र से ही खेतों और घर के निजी कामों में लगा देते हैं । साथ-ही-साथ पढ़ाई लिखाई भी करवाते हैं । जिससे बच्चे काम और पढ़ाई लिखाई में निपुण हो जाएं । ज्यादा नहीं तो कुछ पढ़-लिख सके । नौकरी मिलने के भरोसे से तो काम के प्रति सीखने की उम्र ही निकल जाती है । पहले के समय तो इससे भी कम उम्र से ही काम करवाते थे । जिससे बच्चों का मन काम में लग जाता था लेकिन पढ़ाई लिखाई में नहीं । पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते थे । मगर कुछ बच्चे ऐसे होते हैं जो दोनों कामों में माहिर हो जाते हैं । तान्वी ऐसी ही लड़की थी । बहुत गम्भीर और समझदार । कम उम्र से ही उचित निर्णय करते समय नहीं सकुचाती थी । मां बाप उस पर पुरा भरोसा करते थे । 

  Axistence is a Self Esteem

खेत से घर आते ही पिताजी ने कहा " जा बेटी दुकान से से शक्कर - चाय पत्ती ले आ, बहुत थकान महसूस हो रहा है । ताजगी आ जाएगी । फिर नहाने तालाब जाऊंगा  "

सत्रह साल की अपनी बेटी से पिता ने कहा ! बेटी तुरंत अपनी मां से पैसा मांग कर चली गई । 

दुकान के पास अक्सर पुरुषों का जमावड़ा होता है ।निर्थक लोग समय काटने के लिए बैठे रहते हैं । इधर-उधर की बातें होती हैं । लेकिन आजकल के लड़के मोबाइल चलाने बैठ जाते हैं । 

जब तान्वी समान खरीद रही थी तो सभी छिछोरे लड़कों का ध्यान उसकी ओर चला गया । उसके फटे हुए कपड़े जो पीछे से जांघ के नीचे था । तान्वी समझ नहीं पा रही थी कि ये सभी लड़के उसे क्यों देख रहे हैं ! कांधे पर रखें दुपट्टा को उसने सही किया । क्योंकि लड़की थी और वो अनायास ही जानती थी  कि पुरुष किस ओर ध्यान ज्यादा देते हैं । अपने मन को उलझाते हैं । 


फिर भी लड़के अजीब सी नज़रों से देख रहें थे । उसे ऐसा लग रहा था कि मानो वे सभी लड़के परिभाषित कर रहे थे । उसके अस्तित्व को । क्या चीज़ के लिए बनी है !उसकी आंखों के भाव और चेहरे की चमक समझकर तान्वी असहज थी । एक अजीब-सी घिनौनी नजरों से । उस समय तान्वी को लगा कि दुकान से जल्दी से चली जाय । सामान लेते समय बार-बार उन लड़कों से विचलित हो रही थी । झट से सामान खरीदीं और घर की ओर चल पड़ी ।


रास्ते में अपने सलवार को छुआ तो महसूस हुआ कि पीछे से फट गया है । उसे याद आई कि खेत के मेड़ से अरहर उखाड़ते समय लकड़ी फंस जाने के कारण कपड़ा फट गया था । लेकिन घर आकर कपड़ा बदल नहीं पाई । यह जानकर उसे बहुत दुख हुआ कि कपड़े क्यों नहीं बदली और दुकान आ गई । 

खुद से शर्मिंदगी महसूस करते हुए घर आ गई । घर आते ही उसने सूई धागा लिया और सिलने लगी । 

मां कोसते हुए बोली " अभी तुम्हें कपड़े सिलने की पड़ी है । पहले नहा खा लें । पुरे समय है । ऐसे कामों के लिए " । 

तान्वी कुछ नहीं बोली । चुपचाप सिलती रही । 

उसने जो महसूस किया उसे मां को कैसे बताएं । कुछ बातें कह नहीं पाते हैं । अपनी समझ में रख लेती हैं, अक्सर लड़कियां । 


तान्वी दिन भर सोचती रही । भूलने की कोशिश करती फिर भी आ याद आ जाती थी । क्यों नहीं सिल कर गई । शायद ! ऐसी शर्मिंदगी महसूस नहीं करती । रात में भी सोच आती रही । मन को समझाती लेकिन संतोष नहीं हुआ । अंततः निर्णय लिया कि जो हो गया सो हो गया । अब कुछ भी नहीं किया जा सकता है । लड़कों की सोच हैं । मैं भला क्या कर सकती हूं !


फिर सोचती उन लड़कों का नजरिया जो उसके प्रति बन गया है । हमेशा उसी नजरों से देखेंगे । पुरूषों के लिए क्या है वो ! उनके यौन भावनाओं की तृप्ति के लिए,, छी छी ...बहुत पछताती थी । 


उस दिन से सभी लड़के कहीं न कहीं मिल जाते तो वहीं पुरुष और स्त्री की नजरों से निहारते थे । विपरीत लिंग का आकर्षण । मानों उसे प्रेरित कर रहा हो । यौन भावनाओं के लिए । जिस चीज़ का ख्याल तान्वी ने नहीं किया था । उसे याद दिलाते थे । इशारे करते । जिससे असहज हो जाती थी ।‌समझती थी पुरूषों की भावनाएं और अपनी उम्र को । 


खेत और पढ़ाई के सिवाय उसने कभी कुछ नहीं सोचा था । कई बार उसका मन अनिच्छा से चला जाता,, फिर छी की भावना से लौट आती । उन लोगों की नजरों को समझकर घर से निकलने पर डर जाती थी । आखिर कब तक ऐसा होगा । 


एक दिन खेत जाते समय रास्ते में  वहीं लड़के मिल गए । मां घर के काम के बाद खेत जाती थी । पिताजी पहले से चल दिए थे । तान्वी अभी अकेली है । आवारा लड़कों को जैसे मज़ा लेने का मौका मिल गया । 


उनमें से किसी ने छेड़ते हुए कहा "बहुत गोरी है । उस दिन जिस जगह को देखा था । "


इतना सुनते ही तान्वी कुछ पल के लिए विचलित और असहज हो गई । लेकिन खुद को सम्हालते हुए बोली


" क्या देखा था तुम लोगों ने । मेरा शरीर को या अपनी नीयत । जो बहुत बुरी है । तुम अपना भोजन समझते हो । जो खा लोगे । मेरी देह तुम्हारे लिए नहीं है । उसे अपने पास रखो " । 

"क्या अपने पास रखो "।  लड़कों में से किसी ने कहा । 


" मुझे समझ गए लेकिन खुद को नहीं । मैं खेत जाती हूं लेकिन पढ़ने के लिए भी ।इतनी समझ है मेरी । तुम जैसे निर्बुद्धि को समझा नहीं सकती लेकिन खुद को सम्भाल सकती हूं । किसी की विवशता को तुम लोग मानसिक स्पर्श तक लें गए और आंकलन कर लिए । वाह रे ग्वार । मैं तुम्हारे मजा के लिए बनी हूं । उसी मानसिकता से मुझे निहार रहे हो । यही चरित्र है । इतना हक तुम्हें कौन दिया है । नालायक "। 


तान्वी के गुस्से से लड़के चुप हो गए । कुछ लोग और आ गए । लेकिन वो चुप नहीं हुई । 


" अपनी सोच के बारे में सोच रहे हो । लेकिन मैं क्या सोचती हूं, कभी तुम लोगों ने सोचा है । खाली निठल्ले, और कुछ ख्याल नहीं आता होगा । गवार की सोच । लिंग की आकृति पर मुग्ध विवेकहीन लिंग धारी "।


सबके सामने तान्वी के कहने से लड़के शर्मिंदा होने लगे,  साथ-साथ उसके प्रति नफ़रत भी करने लगे । इतना सुनाया फिर भी कुछ कह नहीं पाएं । 


इतने में उसकी मां भी दूर से आती हुई दिखाई दी । तान्वी भीड़ से अलग होकर चलने लगी । कुछ सोची फिर अलग हो कर मां का इंतजार करने लगी । मां पास आई तो पूछने लगी " क्या हो गया है , सभी इक्ट्ठे हैं " । 


"कुछ नहीं,  उस दिन की सिलाई आ पूरी हुई है कुछ लोगों के नजरिए की " ! 


"क्या ? " मां ने कहा । 


" अरे ! कुछ नहीं । हर चीज़ पर ध्यान देती हो मां ! "

मां चुप हो गई । 


उस दिन से लड़के तो मिलते हैं लेकिन नफ़रत और गुस्से से निकल जाते हैं । तान्वी को अनादर, अनदेखा करके । 

तान्वी को इससे कोई मतलब नहीं है । ख़ुशी इस बात का है कि उसके अस्तित्व को स्वीकार किया । उसकी अलग पहचान इंसान के रूप में हुई  । न कि लिंग के अनुरूप । उसके प्रति जो नजरिया बनाया था । उसको रफू कर दी थी । 


-राजकपूर राजपूत


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